पिपलोदी गाँव का वह सरकारी स्कूल, जिसकी दो दिन पहले छत गिर गई थी, अब बच्चों की यादों में खौफ बन गया है। हादसा तो बीत गया, लेकिन उसका मंजर अभी भी बच्चों के दिलो-दिमाग से नहीं उतरा है। आँखें बंद करते ही मलबा गिरता दिखाई देता है और नींद में भी चीखें गूंजती हैं।झालावाड़ के एसआरजी अस्पताल में भर्ती घायल बच्चों की हालत अब सिर्फ़ शारीरिक दर्द की नहीं है... यह चोट उनकी आत्मा पर है। सिर पर पट्टियाँ, हाथों में सलाइन... लेकिन सबसे गहरा ज़ख्म मन में है... जो किसी दवा से भरता नहीं दिखता। अस्पताल में भर्ती नौ मासूम बच्चे अभी भी ज़िंदगी और मौत के बीच जूझ रहे हैं। एक गंभीर बच्चे को कोटा रेफर किया गया है। बिस्तर पर लेटे घायल छात्र बादल से जब उस दिन के बारे में पूछा गया, तो उसकी आँखों से आँसू छलक पड़े। पहले तो उसने कुछ नहीं कहा। फिर वह इधर-उधर की बातें करता रहा... मानो अपने दर्द से भाग रहा हो। लेकिन जब उससे दोबारा पूछा गया, तो वह खुद को रोक नहीं पाया।पास ही खड़े बादल के चाचा कमलेश ने कहा, 'हाँ, अब हम उसे उस स्कूल में नहीं भेजेंगे। हम गुराड़ी स्कूल जाएँगे।' बादल ने सिर झुकाकर सहमति जताई... एक मासूम हाँ, जिसमें एक डर छिपा था... और शायद एक टूटा हुआ भरोसा भी।
मासूम आँखों में डर उतर आया...
छात्र बिरम को नींद आ रही थी, लेकिन उसके पेट में अंदरूनी चोट लगी थी। चाचा श्रीराम कहते हैं, 'ऐसा किसी के साथ नहीं होना चाहिए था।' चौथी कक्षा की छात्रा साइना की मासूम आँखों में स्कूल शब्द सुनते ही डर उतर आता है। चौथी कक्षा के छात्र मिलन की माँ कालीबाई की आवाज़ रुँधी हुई है। वह कहती हैं, 'हम बच्चों को सीने से लगाकर यहाँ लाए हैं। अब जब तक वे पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते, हम गाँव नहीं लौटेंगे।' घायल छात्र मिथुन ने धीरे से कहा, 'मेरे सिर में चोट लगी है।' उसके पिता मुकेश ने रुँधी हुई आवाज़ में कहा, 'अब मैं बस यही चाहता हूँ कि ऐसा हादसा किसी और के साथ न हो... स्कूलों को बचपन की जगह बनाओ, कब्रिस्तान नहीं...'।
मन पर चोट...
पहली कक्षा में पढ़ने वाली छात्रा मोनिका अस्पताल के बिस्तर पर चुपचाप लेटी है। उसके पिता तेजमल कहते हैं, 'हाँ, शरीर पर चोटें तो हैं, लेकिन उसके मन में जो डर घर कर गया है, वह अब और भी गहरा होता जा रहा है।' एक मासूम बच्ची, जिसकी उम्र गुड़ियों से खेलने की है, अब अस्पताल की दवाइयों और दर्द की भाषा सीख रही है। 'वो मेरी भतीजी है। वो एक दुर्घटना में घायल हो गई थी। अब बस भगवान से यही प्रार्थना है कि किसी और बच्चे के साथ ऐसा न हो...' आरती की बुआ ने बताया। उसकी आँखों में वही डर था, जो गाँव के हर घर में है।
मुरली अभी स्कूल भी नहीं पहुँचा था
छात्र मुरली मनोहर, जो छह साल का होने वाला है। अभी दाखिले की औपचारिकताएँ भी पूरी नहीं हुई थीं। हादसे में वो बेहोश हो गया। पिता देवीलाल कहते हैं, 'उसका जन्मदिन 2 अगस्त को है, तब मुझे उसका स्कूल में दाखिला करा देना चाहिए था। वो अभी स्कूल जाना सीख ही रहा था।' लेकिन उससे पहले ही ज़िंदगी ने उसे अस्पताल पहुँचा दिया। उसके सिर, आँखों, हाथों और पैरों, हर जगह चोटें आईं।
पाँचवीं कक्षा के छात्र राजू का एक पैर फ्रैक्चर हो गया था। उसका पैर का अंगूठा बुरी तरह फट गया था। उसे इमरजेंसी में लाया गया, जहाँ डॉक्टरों ने तुरंत उसका ऑपरेशन किया और उसका इलाज किया। अब उसकी हालत थोड़ी बेहतर है, लेकिन उसकी आँखों में डर अभी भी है। जब उसकी माँ से इस हादसे के बारे में पूछा गया, तो शब्द उनके गले में ही अटक गए। वह कुछ बोल नहीं पाईं - बस रोने लगीं।
उसने रोते हुए कहा, 'मुझे अब स्कूल नहीं जाना...'। पास ही खड़े बादल के चाचा कमलेश ने कहा, 'हाँ, अब हम उसे उस स्कूल में नहीं भेजेंगे। हम गुराड़ी स्कूल जाएँगे।' बादल ने सिर झुकाकर हामी भरी... एक मासूम हाँ, जिसमें एक डर छिपा था... और शायद एक टूटा हुआ भरोसा भी।
मासूम आँखों में डर उतर आया...:
छात्र बीरम को नींद आ रही थी, लेकिन उसके पेट में अंदरूनी चोट है। चाचा श्रीराम कहते हैं, 'ऐसा किसी के साथ नहीं होना चाहिए था।' स्कूल शब्द सुनते ही चौथी कक्षा की छात्रा साइना की मासूम आँखों में अब डर उतर आता है। चौथी कक्षा के छात्र मिलन की माँ कालीबाई की आवाज़ रुँधी हुई है। वह कहती हैं, 'हम बच्चों को सीने से लगाए यहाँ लाए हैं। अब जब तक वे पूरी तरह ठीक नहीं हो जाते, हम गाँव नहीं लौटेंगे।' घायल छात्र मिथुन ने धीरे से कहा, 'मेरे सिर में चोट लगी है।' उसके पिता मुकेश ने रुँधी हुई आवाज़ में कहा, 'अब बस यही दुआ है कि ऐसा हादसा किसी और के साथ न हो... स्कूलों को बचपन की जगह बनाएँ, कब्रिस्तान नहीं...'।
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