कनाडा के आम चुनावों में लिबरल पार्टी को जीत मिली है. पार्टी का नेतृत्व करने वाले मार्क कार्नी देश के नए प्रधानमंत्री बनेंगे.
पेशे से अर्थशास्त्री कार्नी पिछले महीने जस्टिन ट्रूडो के इस्तीफ़े के बाद गैर निर्वाचित (पीएम पद के लिए चुनाव लड़े बगैर) पीएम बने थे. लेकिन अब वो निर्वाचित प्रधानमंत्री के तौर पर देश की कमान संभालने जा रहे हैं.
कार्नी ऐसे समय में कनाडा के प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं जब उनका देश आवास संकट, बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दों से जूझ रहा है. साथ ही वो अपने सबसे बड़े व्यवसायिक साझेदार अमेरिका से टैरिफ़ वॉर में भी उलझा हुआ है.
कनाडा में मार्क कार्नी की जीत की भारत में काफी चर्चा है. सभी की निगाहें इस पर बात पर हैं कि क्या कार्नी पीएम बनने के बाद भारत के साथ कनाडा के रिश्तों को दोबारा पटरी पर ला पाएंगे.
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क्या मार्क कार्नी प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के पिछले कार्यकाल में भारत और कनाडा के बीच आई कड़वाहट दूर कर सकेंगे?
भारत और कनाडा के रिश्ते अच्छे रहे हैं. लेकिन साल 2023 के जून महीने में ख़ालिस्तान समर्थक नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद दोनों देशों के रिश्ते ख़राब होते चले गए.
तत्कालीन पीएम जस्टिन ट्रूडो ने कनाडा की संसद में कहा था कि निज्जर की हत्या में भारतीय एजेंटों के शामिल होने के 'पुख़्ता सुबूत' हैं. भारत ने इन आरोपों को ग़लत बताया था.
रिश्ते इतने बिगड़े कि दोनों देशों ने एक दूसरे के राजनयिकों को निकाल दिया. भारत ने कनाडा पर खालिस्तान समर्थक तत्वों को बढ़ावा देने का आरोप लगाया.
लेकिन पिछले महीने गैर निर्वाचित प्रधानमंत्री बनने के बाद मार्क कार्नी ने जिस तरह के संकेत दिए हैं, उससे भारत के साथ कनाडा के रिश्तों के दोबारा पटरी पर आने के आसार बढ़ गए हैं.
भारत-कनाडा संबंधों के जानकारों का कहना है कि कार्नी अर्थशास्त्री और बैंकर रहे हैं.
वो व्यावहारिक हैं और इस समय जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की टैरिफ़ पॉलिसी की वजह से पूरी दुनिया में ट्रेड वॉर का माहौल है तो वो भारत के साथ अपने कदमों को सोच-समझ कर उठाएंगे.
अपने चुनावी अभियान के दौरान मार्क कार्नी ने कई बार भारत के साथ रिश्ते सुधारने के संकेत दिए थे.
अपने व्यस्त चुनावी कार्यक्रम से समय निकालकर रामनवमी उत्सव में शामिल होना बताता है कि भारत से रिश्ते सुधारना उनकी प्राथमिकता में शामिल है.
भारत मार्क कार्नी के चुनावी अभियान पर निगाहें बनाए हुए था. कनाडा चुनाव में जैसे ही मार्क कार्नी की पार्टी की जीत मिली.
उन्होंने कनाडा और भारत के रिश्तों को मजबूत करने के लिए मिलकर काम करने की प्रतिबद्धता जताई.
चुनाव अभियान के दौरान कार्नी से पूछा गया था कि सत्ता में आने के बाद भारत कनाडा के रिश्तों में सुधार के लिए वो क्या करेंगे.
, "भारत और कनाडा का रिश्ता कई स्तरों पर बहुत महत्वपूर्ण है. निजी संबंधों, आर्थिक और रणनीतिक मोर्चे पर भी. बहुत से कनाडाई हैं जिनके भारत से बहुत निजी संबंध हैं. मैं अपने अनुभव से कहता हूं कि इस समय विश्व अर्थव्यवस्था जिस तरह हिली हुई है और नया आकार ले रही है, ऐसे में भारत और कनाडा जैसे देश बहुत बड़ी भूमिका निभा सकते हैं."
क्या कहते हैं विशेषज्ञमार्क कार्नी ने कहा था कि ट्रेड वॉर से मौके भी पैदा हुए हैं. उन्होंने कहा था "ये उन मौकों में से एक है, जिन पर अगर मैं प्रधानमंत्री बनता हूं तो काम करूंगा."
उन्होंने मार्च में ही एक जनसभा के दौरान कहा था, ''कनाडा को नए दोस्तों और सहयोगियों की ज़रूरत है.''
इस संबंध में उन्होंने भारत का ख़ास तौर पर ज़िक्र किया था.
मार्क कार्नी ने भारत के साथ संबंध सुधारने के जो इरादे जाहिर किए हैं, क्या वो उन्हें ठोस शक्ल भी दे पाएंगे?
क्या जस्टिस ट्रूडो की सरकार के दौरान भारत-कनाडा रिश्तों को सामान्य बनाने में कार्नी कामयाब होंगे?
दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में कनाडाई,अमेरिकी और लातिन अमेरिकी अध्ययन केंद्र में एसोसिएट प्रोफे़सर विनीत प्रकाश से जब बीबीसी ने ये सवाल पूछा तो उन्होंने कहा,'' जस्टिन ट्रूडो के हटने के बाद मार्क कार्नी ने भारत-कनाडा संबंधों को लेकर काफी संतुलित दृष्टिकोण अपनाया है."
"उन्होंने एक मध्य मार्ग अपनाने की कोशिश की है. उनकी जीत में उनकी इस सोच और शैली का बहुत बड़ा हाथ है. इस वजह से मैं मानता हूं कि उनकी सरकार में भारत-कनाडा के रिश्तों में सुधार होगा.''

क्या मार्क कार्नी सरकार पर भी खालिस्तान समर्थक संगठनों का असर रहेगा, जो भारत के साथ कनाडा के संबंधों को सुधारने में रोड़ा अटका सकते हैं?
इस सवाल पर विनीत प्रकाश ने कहा, ''खालिस्तान समर्थक न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी और उनके नेता जगमीत सिंह के खराब चुनावी प्रदर्शन से खालिस्तानी समर्थक कमजोर होंगे. चूंकि ट्रूडो सरकार को वो समर्थन दे रहे थे इसलिए कनाडा में खालिस्तान समर्थकों का असर दिख रहा था. अगर खालिस्तान और खालिस्तान संबंधित जो संगठन हैं वो कमजोर पड़ते हैं तो उसका भी एक स्वाभाविक असर भारत और कनाडा के रिश्तों के सुधार के तौर पर दिखेगा.''
विनीत प्रकाश का मानना है कि कनाडा में खालिस्तान मुद्दे का समर्थन करने वाले काफी कम लोग हैं.
उनका कहना है कि ट्रूडो सरकार में उन्हें मीडिया कवरेज ज़्यादा मिल रहा था इसलिए उनकी 'विजिबिलिटी' ज्यादा थी. उनकी गतिविधियों पर ज्यादा रोक-टोक नहीं थी क्योंकि ट्रूडो सरकार इन समूहों के समर्थन पर टिकी हुई थी.
ने न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी और उनके नेता जगमीत सिंह की हार पर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर लिखा, '' खालिस्तान समर्थक जगमीत सिंह ने जस्टिन ट्रूडो की अल्पमत सरकार को बचाए रखने में मदद की थी, इसी वजह से वो भारत के प्रति अपनी सख्त नीति पर कायम रहने के लिए मजबूर हुए थे. 2015 में, जगमीत सिंह ने सैन फ्रांसिस्को में एक अलगाववादी सिख रैली में भाग लिया, जिसमें जरनैल सिंह भिंडरावाला को याद किया गया था. वो एक सशस्त्र चरमपंथी समूह का नेता थे, जिन्हें 1984 में स्वर्ण मंदिर पर कब्जा करने के बाद भारतीय सेना ने मार दिया था.''
कनाडाई नागरिक और खालिस्तान समर्थक नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद पिछले साल जस्टिन ट्रूडो ने भारत की ओर उंगली उठाई थी.
कनाडा का कहना था कि निज्जर की हत्या में भारत की एजेंसियों का हाथ है और उसके पास उसके पुख्ता सुबूत हैं. हालांकि भारत ने इसे सिरे से खारिज कर दिया था.
उसके बाद दोनों देशों ने एक दूसरे के डिप्लोमैट्स को देश छोड़ने को कहा था.
इसके बाद दोनों देशों के बीच तल्ख़ भाषा में बयानबाज़ी हुई थी. दोनों से दावे-प्रतिदावे किए गए थे.
भारत का मानना है कि कुछ कनाडाई सिख भारत के भीतर एक अलग सिख देश बनाने के उद्देश्य से हिंसक ख़ालिस्तानी आंदोलन को बढ़ावा दे रहे हैं. यही तकरार का अहम बिंदु है.
भारत कनाडा से ऐसे कुछ लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग करता रहा है जिन पर वो ख़ालिस्तानी समर्थक होने का आरोप लगाता रहा है. हालांकि कनाडा ने भारत की ऐसी मांगों को अनसुना ही किया.
के लिए एक लेख में लिखा था कि भारत-कनाडा में लगातार ख़राब होते जा रहे रिश्तों में खटास हैरान करने वाली है.
सोवियत यूनियन के विघटन के बाद किसी भी पश्चिमी देश के साथ भारत के संबंध इतने ख़राब नहीं रहे हैं.
ये दिलचस्प है कि अमेरिका के किसी नज़दीकी सहयोगी के साथ भारत के रिश्तों में इतनी खटास आ गई हो.
भारत बीते तीन दशकों से ख़ुद अमेरिका के साथ आर्थिक और सामरिक दिशा में बेहतर संबंध बनाने में प्रयासरत रहा है.
कौन हैं मार्क कार्नी?मार्क कार्नी बैंक ऑफ इंग्लैंड के गवर्नर रह चुके हैं और इस केंद्रीय बैंक के 300 से अधिक वर्षों के इतिहास में शीर्ष बैंकिंग भूमिका निभाने वाले वह पहले गैर-ब्रिटिश शख़्स थे.
उन्होंने इससे पहले 2008 के वित्तीय संकट के दौरान बैंक ऑफ कनाडा के गवर्नर के रूप में अपने देश का नेतृत्व किया था.
अधिकांश प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों से उलट कार्नी ने इससे पहले कभी राजनीतिक पद नहीं संभाला था.
हालांकि पिछले मार्च में उन्होंने निवर्तमान प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की जगह लेने के लिए लिबरल पार्टी का चुनाव आसानी से जीत लिया. अब चुनाव में लिबरल पार्टी को मिली जीत के बाद वो निर्वाचित प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं.
उन्होंने वैश्विक आर्थिक संकटों से निपटने के अपने अनुभव के बारे में दावे किए हैं और उम्मीद की जा रही है कि कनाडाई उन्हें ऐसे नेता के तौर पर देखेंगे जो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सामने डट कर खड़ा हो सके.
उनका जन्म कनाडा के नॉर्थवेस्ट टेरिटरीज़ के सुदूर उत्तरी शहर फोर्ट स्मिथ में हुआ था.
कार्नी ने दुनिया भर की यात्रा की है, न्यूयॉर्क, लंदन और टोक्यो जैसी जगहों पर काम किया है.
कार्नी के पास आयरिश और कनाडाई दोनों नागरिकताएं हैं. उन्हें 2018 में ब्रिटिश नागरिकता मिली, लेकिन हाल ही में उन्होंने कहा कि वह अपनी ब्रिटिश और आयरिश नागरिकता छोड़ने का इरादा रखते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि प्रधानमंत्री के पास केवल कनाडाई नागरिकता होनी चाहिए.
उनके पिता हाई-स्कूल प्रिंसिपल थे. वह छात्रवृत्ति पर हार्वर्ड विश्वविद्यालय गए और वहां से पढ़ाई की.
1995 में, उन्होंने ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पीएचडी की डिग्री हासिल की.
उनकी थीसिस का विषय था- 'क्या घरेलू प्रतिस्पर्धा किसी अर्थव्यवस्था को राष्ट्रीय स्तर पर अधिक प्रतिस्पर्धी बना सकती है.'
यह एक ऐसा विषय है जो निश्चित रूप से अमेरिकी टैरिफ़ के सामने आंतरिक व्यापार को आसान बनाने को लेकर उनकी भूमिका की परीक्षा लेगा.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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