देश में नया वक़्फ़ संशोधन क़ानून लागू होते ही सरकार और विपक्ष आमने-सामने हैं.
विपक्ष ने इस क़ानून को असंवैधानिक और मुसलमानों की संपत्ति को हड़पने वाला बताया है.
जबकि सरकार का कहना है कि नया क़ानून वक़्फ़ बोर्डों में सुधार और पारदर्शिता तय करेगा, लेकिन विपक्ष ने सरकार के इसे दावे को सिरे से ख़ारिज कर दिया है.
इस मुद्दे पर दोनों पक्षों के अपने-अपने दावे हैं. आइए जानते हैं कि दोनों ओर से क्या दावे किए जा रहे हैं और इनमें कितनी सच्चाई है.
वक़्फ़ और इससे जुड़े क़ानूनवक़्फ़ का मतलब ये है कि किसी ने अपनी संपत्ति अल्लाह के नाम कर दी और अब उसे ऐसे काम के लिए इस्तेमाल किया जाए जिसे इस्लाम में पवित्र, धार्मिक और चैरिटेबल माना गया है.
भारत में ऐसी कई संपत्तियां हैं जो वक़्फ़ की हैं, जहां मस्जिदें, ईदगाह, क़ब्रिस्तान, अस्पताल, स्कूल और यूनिवर्सिटी भी हैं.
हर राज्य में एक वक़्फ़ बोर्ड होता है जो वक़्फ़ की प्रॉपर्टी का प्रबंधन करता है. केंद्र में भी अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के तहत एक वक़्फ़ काउंसिल है.
साल 1995 में वक़्फ़ कानून में वक़्फ़ की प्रॉपर्टी और मैनेजमेंट से जुड़े कई नए प्रावधान शामिल किए गए थे.
फिर साल 2013 में इसे बेहतर करने के लिए संशोधन किया गया. अब 2025 में केंद्र सरकार ने न सिर्फ इसमें बड़े बदलाव किए हैं बल्कि कानून का नाम भी बदल दिया है.
मीडिया में वक़्फ़ की प्रॉपर्टी को लेकर काफ़ी दावे किए जा रहे थे, जैसे कि वक़्फ़ के पास रेलवे और सेना से भी ज़्यादा ज़मीन है.
सरकार कहती रही है कि 'वक़्फ़ कानून 1995' में और साल 2013 वाले संशोधन में कुछ कमियां थीं. उसके मुताबिक़ इनकी वजहों से वक़्फ़ की ज़मीन पर गैर-कानूनी कब्जा हो रहा था. इसके प्रबंधन और मालिकाना हक़ को लेकर झगड़े थे.
है कि किस राज्य में वक़्फ़ के पास कितनी प्रॉपर्टी है.
इसके मुताबिक़ वक़्फ़ के पास सभी राज्यों में कुल मिलाकर कुल 38 लाख एकड़ ज़मीन है.
ओडिशा राज्य की बात करें तो यहां वक़्फ़ बोर्ड के पास 28,714 एकड़ ज़मीन है. जबकि ओडिशा में ही भगवान जगन्नाथ के नाम इससे दोगुनी ज़मीन है.
ओडिशा के 24 ज़िलों में भगवान जगन्नाथ के नाम से 60,426 एकड़ ज़मीन है. इनमें से 974 संपत्तियों पर तो गैर-कानूनी कब्ज़ा भी किया गया है.
ये जानकारी ने दी थी.
ओडिशा में इसके अलावा भी कई मंदिरों की ज़मीन है. तमिलनाडु में वक़्फ़ के पास 6 लाख 55 हज़ार एकड़ ज़मीन है. राज्य में 5 लाख 25 हज़ार एकड़ ज़मीन मंदिरों की है. इसमें 47 हज़ार एकड़ का रिकॉर्ड ही गायब हो चुका है.
खुद हाई कोर्ट ने सरकार से पूछा था कि इतनी ज़मीन आख़िर कहां चली गई.
है. आंध्र प्रदेश के मंदिरों के पास 4 लाख 6 हज़ार एकड़ ज़मीन है. इसमें से 87 हज़ार एकड़ पर अवैध कब्ज़ा है. डिप्टी चीफ़ मिनिस्टर पवन कल्याण अवैध कब्ज़े हटाने की मांग कर रहे हैं.
इसका मतलब ये है कि मंदिरों, गुरुद्वारों, चर्च और वक़्फ़ के पास ठीक-ठाक ज़मीन है और इन ज़मीनों पर अवैध कब्ज़े भी हैं. लोगों का कहना है कि सरकार को इन अवैध कब्ज़ों पर भी ध्यान रखना चाहिए.
सरकार की ओर से भी इन ज़मीनों पर कब्जे से जुड़े विवाद कोर्ट में आते रहे हैं. साल 2023 में इलाहाबाद हाई कोर्ट में आए मामले के मुताबिक़ साल 1970 में उत्तर प्रदेश के राजस्व विभाग ने मथुरा में एक ज़मीन को ग्राम सभा की ज़मीन घोषित कर दिया.
फिर साल 1991 में उसे तालाब घोषित कर दिया. कोर्ट ने किया क्योंकि ये ज़मीन मथुरा के बिहारी जी विराजमान मंदिर की थी.
ये कोई अकेला कोर्ट केस नहीं है जहां मंदिरों की ज़मीन और सरकार के बीच विवाद है. मंदिर, चर्च, मस्जिद या गुरुद्वारे की ज़मीन को लेकर भी विवाद होते रहे हैं.
खुद सुप्रीम कोर्ट ने साल 2009 में सरकार को आदेश दिया था कि ये नहीं होना चाहिए. लेकिन कई बार छोटे-छोटे धार्मिक निर्माण खड़े हो जाते हैं और फिर विवाद चलते रहते हैं.
नए वक्फ़ क़ानून में कहा गया है कि वक़्फ़ बोर्ड में दो गैर-मुस्लिम सदस्य होना ज़रूरी है.
ये भी कहा गया है कि सिर्फ़ प्रैक्टिसिंग (इस्लाम को मानने वाले) मुसलमान ही अपनी प्रॉपर्टी वक़्फ़ में दान कर सकते हैं. सवाल ये है कि अगर वक़्फ़ धार्मिक नहीं है सिर्फ समाज सेवा है तो फिर ये शर्त क्यों लगाई गई?
अगर ये धर्म से जुड़ा है तो फिर इसके बोर्ड में गैर-मुसलमानों का होना क्यों ज़रूरी किया गया.
जबकि श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के 15 सदस्यों का प्रैक्टिसिंग हिंदू (हिंदू धर्म को मानने वाले) होना ज़रूरी रखा गया है.
ट्राइब्यूनल कोई नया सिस्टम नहीं है. देश में कई ट्राइब्यूनल काम कर रही हैं. क़ानून के ज़रिए ही इन ट्राइब्यूनल का गठन होता है और वो सिविल कोर्ट की तरह ही काम करती हैं.
ट्राइब्यूनल इसलिए बनाए गए हैं ताकि कोर्ट पर बोझ कम हो, मामलों का निपटारा जल्दी हो. जैसे तेलंगाना चैरिटेबल एंड हिंदू रिलिजियस इंस्टीट्यूशंस एंड एनडॉवमेंट एक्ट 1987.
उसके लिए भी एक ट्राइब्यूनल है. वैसे ही वक़्फ़ के लिए भी है. ख़ास बात ये है कि राज्य सरकार खुद ही ट्राइब्यूनल के सदस्य नियुक्त करती है.
सुप्रीम कोर्ट ने ये आदेश दिया था कि ट्राइब्यूनल भी अर्द्ध न्यायिक निकाय है और वे भी सरकार के नियंत्रण से उसी तरह आज़ाद होनी चाहिए जैसे कि न्यायपालिका.
केंद्र सरकार का ये तर्क था कि वक़्फ़ ट्राइब्यूनल के फ़ैसले को हाई कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती. इसलिए उन्होंने इसमें बदलाव किया है. बल्कि कई बड़े-बड़े नेता ये दोहराते दिखे. आख़िर साल1995 के वक़्फ़ एक्ट में क्या लिखा है.
की तरह काम करेगी और उसका फ़ैसला अंतिम होगा, जिसे दोनों पक्षों को मानना होगा.
लेकिन इसमें ये भी लिखा है कि हाई कोर्ट खुद ही या बोर्ड या किसी पार्टी की याचिका पर सुनवाई कर सकता है और ट्राइब्यूनल के फ़ैसले को बदल सकता है.
साल 2013 के संशोधन में इस सेक्शन में कोई बदलाव नहीं किया गया था.
लेकर आए थे तो उन्होंने खुद संसद में कहा था कि "वक़्फ़ के रेवेन्यू रिकॉर्ड्स और सर्वे रिकॉर्ड्स में कई जगह फ़र्क है. इसलिए हमने ट्राइब्यूनल को मज़बूत किया है और इसलिए तीन लोगों की ट्राइब्यूनल बनाई है. ट्राइब्यूनल के बाद हाई कोर्ट है, और कोई भी इस पर हाई कोर्ट भी जा सकता है."
1987 में भी ट्राइब्यूनल के फ़ैसले को ही अंतिम फ़ैसला लिखा गया है.
दूसरे राज्यों में भी ट्राइब्यूनल के फ़ैसले को फाइनल यानी अंतिम कहा गया है. लेकिन कहा जा रहा है कि अगर हाई कोर्ट नहीं जा सकते थे तो ये फ़ैसला कैसे आया?
तेलंगाना हाई कोर्ट ने वक़्फ़ की याचिका को खारिज कर दिया था. पर हक़ जताया था जिसे हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया था.
इसका मतलब है कि हाई कोर्ट में जाने का विकल्प पहले भी था और अब भी हाई कोर्ट जा सकते हैं. लेकिन समस्या उसके बाद की है. नेशनल ज्यूडिशियल डेटा ग्रिड की वेबसाइट के मुताबिक़ भारत के उच्च न्यायालयों में 62 लाख से ज़्यादा मामले लंबित हैं. इनमें से हैं.
सिविल केस में सबसे ज़्यादा ज़मीन से जुड़े मामले ही होते हैं और इस देश में ज़मीन से जुड़े केस का निपटारा करने का रिकॉर्ड अच्छा नहीं है.
तक चलते रहते हैं. इसका ज़िक्र खुद ग्रामीण विकास मंत्रालय ने किया है.

पहले वाले वक़्फ़ क़ानून के सेक्शन 40 में भी बोर्ड के पास ये ताकत थी कि वो किसी प्रॉपर्टी को वक़्फ़ प्रॉपर्टी घोषित कर सकते हैं. लेकिन इसमें समस्या थी, क्योंकि वक़्फ़ बोर्ड में राज्य के एमपी, एमएलए, एमएलसी और बार काउंसिल के सदस्य होते थे.
विश्लेषकों का मानना है कहीं ना कही इस सेक्शन का दुरुपयोग तो हुआ है और नए कानून में इस सेक्शन को हटा दिया गया है. लेकिन नए कानून में भी एक समस्या है.
पुराने कानून में किसी प्रॉपर्टी का सर्वे कराने की ज़िम्मेदारी सर्वे कमिश्नर की थी, लेकिन नए कानून में ये ज़िम्मेदारी ज़िले के ज़िलाधिकारी को दे दी गई है.
यानी अब डीएम बताएंगे कि कोई प्रॉपर्टी वक़्फ़ की है या नहीं.
लेकिन क्या डीएम के पास सर्वे करने की विशेषज्ञता होती है. उन मामलों में क्या होगा जहां विवाद वक़्फ़ और सरकार में हो तो ऐसे में सरकारी अफसर कैसे सरकार के ख़िलाफ़ जाकर कोई फैसला दे पाएगा?
सरकार ने तो नए कानून में ये प्रावधान कर दिया है कि कोई सरकारी प्रॉपर्टी अगर वक़्फ़ की होगी तो इसके मालिकाना हक़ का विवाद कलेक्टर सुलझाएगा और अपनी रिपोर्ट राज्य सरकार को देगा.
तो क्या ये संभव है कि कलेक्टर सरकार के ख़िलाफ़ जाकर फ़ैसला कर पाएगा. इसलिए इन प्रावधानों में अब भी सुधार की ज़रूरत है.
जो बेहतर हुआ है उसका भी ज़िक्र जरूरी है. एक अच्छी बात ये है कि ट्राइब्यूनल को अब छह महीने के भीतर फ़ैसला देना होगा. दूसरा सुधार ये है कि वक़्फ़ संपत्ति के प्रबंधन के लिए नियुक्त मुतवल्ली अगर बिना किसी वजह के एक साल तक प्रॉपर्टी का हिसाब ठीक नहीं रखता है तो उसे हटा दिया जाएगा.
इसके अलावा अब केंद्र सरकार वक़्फ़ के अकाउंट का ऑडिट कैग (सीएजी) से भी करवा सकती है. इन नए प्रावधानों के ख़िलाफ़ कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई हैं.
अब कानून में हुए इन नए बदलावों को सुप्रीम कोर्ट की जांच से गुज़रना होगा.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.
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