"गुजरात कांग्रेस में दो तरह के लोग हैं. एक वे लोग हैं, जो दिल और ईमानदारी से कांग्रेस के लिए लड़ते हैं और जनता से जुड़े हुए हैं. दूसरे वे हैं, जिनका जनता से संपर्क टूट चुका है और बीजेपी के साथ मिले हुए हैं. अगर ज़रूरत पड़े तो ऐसे पांच से 25 नेताओं को कांग्रेस से निकाल देना चाहिए."
यह बयान पिछले महीने राहुल गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं को गुजरात में संबोधित करते हुए दिया था.
इससे पहले, राहुल गांधी ने संसद में कहा था, "हमने आपको अयोध्या में हराया है और हम आपको 2027 में गुजरात में हराकर दिखाएंगे."
लोकसभा चुनाव के बाद से राहुल गांधी दो बार गुजरात का दौरा कर चुके हैं और अब कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन भी 8 और 9 अप्रैल को गुजरात में हो रहा है.
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गुजरात में कांग्रेस का आख़िरी अधिवेशन 1961 में भावनगर में हुआ था. अब 64 साल बाद कांग्रेस ने एक बार फिर गुजरात का रुख़ किया है.
ऐसे में सवाल यह है कि कांग्रेस ने गुजरात में अधिवेशन आयोजित करने का फ़ैसला क्यों किया? क्या इससे पार्टी को कोई बड़ा फ़ायदा होगा? गुजरात में कांग्रेस की वास्तविक स्थिति क्या है?
कांग्रेस के लिए गुजरात में पार्टी का पुनर्निर्माण करना कितना कठिन है और पार्टी की चुनौतियां क्या हैं? राहुल गांधी बार-बार गुजरात क्यों आने लगे हैं और ऐसे बयान क्यों दे रहे हैं?
इस लेख में हमने इन्हीं सवालों के जवाब जानने की कोशिश की है.
ये भी पढ़ेंकांग्रेस गुजरात में दो दिवसीय राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित कर रही है. इसके तहत विभिन्न कार्यक्रमों की घोषणा की गई है. इसमें कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व गुजरात में पार्टी की स्थिति पर भी विचार-विमर्श करेगा.
इस सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष शक्तिसिंह गोहिल और संयोजक अमित चावड़ा हैं. शक्तिसिंह वर्तमान में गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष हैं.
वरिष्ठ समाजशास्त्री और महाराजा कृष्ण कुमार सिंह जी भावनगर यूनिवर्सिटी के पूर्व कुलपति डॉ. विद्युत जोशी कहते हैं, "कांग्रेस नेतृत्व जानता है कि जब भी देश में कोई नई राजनीतिक संस्कृति उभरती है तो उसकी शुरुआत गुजरात से होती है."
"इसलिए, अगर आप गुजरात मॉडल को तोड़ेंगे, तो इसका असर पूरे देश पर पड़ेगा. इसलिए, अधिवेशन को आयोजित करने के पीछे यहां से एक नया मॉडल बनाना और पेश करना मूल विचार हो सकता है."
हालांकि, उनका ये कहना है कि राज्य में कांग्रेस के पास कोई ऐसा नेता नहीं है, जो यह सब कर सके.
इस मामले पर बीबीसी ने गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री सुरेश मेहता से बात की.
वो कहते हैं, "ऐसा लगता है कि कांग्रेस की नई उभरती पीढ़ी को अंदर से लग रहा है कि हमें कुछ करके दिखाना है. "
वडोदरा स्थित महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर अमित ढोलकिया इसे सिर्फ़ प्रतीकात्मक मानते हैं.
वो कहते हैं, "यह सम्मेलन कार्यकर्ताओं के लिए भले ही उत्साहजनक हो, लेकिन इसका आगे चलकर कोई बड़ा राजनीतिक असर नहीं दिखाई देता है. गुजरात में पिछले छह दशकों में कांग्रेस पूरी तरह से बदल गई है और बेहद कमज़ोर हो गई है."
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हरेश झाला का मानना है कि अधिवेशन का मुख्य उद्देश्य कार्यकर्ताओं को सक्रिय करना है.
वो कहते हैं, "कांग्रेस अधिवेशन को मीडिया लाइमलाइट दे या न दे, लेकिन इससे कार्यकर्ताओं में यह संदेश जाएगा कि अब पार्टी गुजरात में सक्रिय हो गई है और पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व गुजरात में दिलचस्पी रखता है."
इससे गुजरात में कांग्रेस को गंभीरता से न लेने वालों की मानसिकता भी बदल सकती है.
गांधीवादी प्रकाश शाह कहते हैं, "1924 में गांधीजी कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए थे, यह उसका शताब्दी वर्ष है. कांग्रेस नेतृत्व को शायद इसलिए लगा होगा कि हमें गांधीजी की जन्मस्थली गुजरात जाना चाहिए."
'कार्यकर्ताओं को मैसेज देने की राहुल गांधी की कोशिश'प्रो. विद्युत जोशी कहते हैं, "गुजरात से भाजपा खुद एक मॉडल बनकर उभरी है. इस मॉडल का मूल आधार बहुसंख्यकवाद, नवउदारवाद और प्रभावशाली जातियों का समर्थन रहा है."
"इसकी मदद से ही 'गुजरात मॉडल' उभरा है. मेरा मानना है कि इतने सालों तक जो मॉडल चला है, उसे अब चुनौती देने का समय आ रहा है."
विद्युत जोशी इसी बात को समझाते हुए भारत की आज़ादी के बाद के 75 वर्षों को तीन भागों में बांटते हैं.
वो कहते हैं, "पहले 25 साल में संस्थाओं और उद्योगों का निर्माण हुआ, देश का ढांचा खड़ा हुआ. यह समय इस व्यवस्था के निर्माण का था, इसीलिए राजनीति स्थिर रही."
"पहले 25 साल में हमने तीन प्रधानमंत्री और एक ही पार्टी का शासन देखा."
इसके बाद के सालों में उसके आधार पर नया नेतृत्व उभरता है. लोग राजनीति में भाग लेने, नेतृत्व करने के लिए आगे आते हैं, मिश्रित अर्थव्यवस्था का दौर आता है.
इसी के चलते अगले 25 साल में 11 प्रधानमंत्री, सात पार्टियां और 14 बड़े आंदोलन हुए.
प्रो. जोशी कहते हैं कि इसके ख़िलाफ़ जो प्रतिक्रिया पैदा हुई, वह हिंदुत्व और बहुलवाद था, जो हमने 1999 के बाद देखा.
बहुलवाद के साथ बाज़ारवाद आया और हमने फिर सिर्फ़ तीन प्रधानमंत्री और दो पार्टियां देखीं.
अब ये 25 साल अब ख़त्म हो रहे हैं और फिर से माहौल बदलने का समय आ रहा है और कांग्रेस नेतृत्व इसे समझ रहा है.
वरिष्ठ पत्रकार हरेश झाला कहते हैं, "2017 में हमने देखा है कि बीजेपी को हराना मुश्किल नहीं है, लोग भी चाहते हैं लेकिन कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता सक्षम नहीं हैं."
वो कहते हैं, "राहुल गांधी ने अहमदाबाद आकर सार्वजनिक रूप से इसे स्वीकार किया, क्योंकि वह कार्यकर्ताओं को यह संदेश देना चाहते थे कि पार्टी नेतृत्व अंधेरे में नहीं है. पार्टी उन नेताओं को जानती है जो भाजपा से मिले हुए हैं."
कार्यकर्ताओं का क्या कहना है?आदिवासी क्षेत्र दाहोद से कांग्रेस की पूर्व सांसद डॉ. प्रभाबेन तावियाड से भी बीबीसी ने बातचीत की.
70 वर्षीय प्रभाबेन का कहना है कि वह जन्म से ही कांग्रेस में हैं, क्योंकि उनके पिता भी आज़ादी से पहले कांग्रेस में शामिल थे.
वह कहती हैं, "गुजरात में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन का असर सकारात्मक होगा. गुजरात में नफ़रत और धमकी की राजनीति से लोग थक चुके हैं, जबकि दूसरी ओर कांग्रेस की विचारधारा हमेशा आख़िरी व्यक्ति तक पहुंचने की रही है."
गुजरात में कांग्रेस के शासन को याद करते हुए वह कहती हैं, "यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने ही हमें पढ़ाया है. आदिवासी इलाक़ों में जो आज शिक्षा का स्तर है, वह कांग्रेस की देन है."
"साम, दाम, दंड, भेद की राजनीति करके भाजपा आदिवासी इलाक़ों में अपनी जगह बनाने में सफल रही है. शिक्षा और स्वास्थ्य आज भी गुजरात के आदिवासी इलाक़ों की मुख्य समस्या है."

1946 से कांग्रेस से जुड़े 91 वर्षीय बालू भाई इस कांग्रेस अधिवेशन में सभास्थल समिति के संयोजक हैं.
उनका मानना है कि राहुल गांधी जो कर रहे हैं, वह दिशा सही है.
उन्होंने कहा, "अधिवेशन स्व-मूल्यांकन के लिए आयोजित किया जाता है. मैं स्वीकार करता हूं कि परिस्थितियों ने कांग्रेस को प्रभावित किया है. पिछले दशकों में समाज में बदलाव आया है."
"राजनीति पर भी इसका प्रभाव पड़ा है, लेकिन एक कार्यकर्ता के तौर पर मैं कहना चाहता हूं कि कांग्रेस को निराश होने की ज़रूरत नहीं है."
सात दशक से ज़्यादा समय से कांग्रेस कार्यकर्ता रहे रमणिक भाई ने बीबीसी से कहा, "यह खुशी की बात है कि कांग्रेस का अधिवेशन गुजरात में होने जा रहा है. मुझे उम्मीद है कि गुजरात के लोग बड़ी संख्या में इसमें हिस्सा लेंगे."
वो कहते हैं, "गुजरात के लोगों में अब भी कांग्रेस के प्रति सम्मान है. पुराने कार्यकर्ता निष्क्रिय हो गए हैं. अगर युवाओं को जोड़ा जाए, तो कांग्रेस फिर से उभर सकती है. कांग्रेस को जनसंपर्क बढ़ाने और लोगों को अपनी विचारधारा समझाने की ज़रूरत है."
ये भी पढ़ेंगुजरात कांग्रेस में गुटबाज़ी को लेकर दिए गए राहुल गांधी के भाषण के बारे में कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच मिली जुली प्रतिक्रिया है.
कांग्रेस कार्यकर्ता सतीश चावड़ा कहते हैं, "गुजरात कांग्रेस नेताओं के बीच गुटबाजी कोई नई बात नहीं है, बल्कि चार दशक से भी ज़्यादा पुरानी है. आप गुजरात से कितने नेताओं को निकालेंगे?"
"इस समय पार्टी को यह सोचना होगा कि पार्टी से वैचारिक रूप से जुड़े लोगों को कैसे बचाए रखा जाए और कैसे उन्हें फिर से काम पर लगाया जाए. अगर ऐसा होता है, तो कांग्रेस पुनर्जीवित हो सकती है."
प्रोफेसर अमित ढोलकिया कहते हैं, "राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से पार्टी के कुछ नेताओं को निष्कासित करने की बात कही थी. इस बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करना एक साहसिक कदम था, लेकिन यह उनकी विफलता और हताशा को भी दर्शाता है."
उन्होंने कहा, "अगर वह इन नेताओं को निष्कासित करते हैं, तो क्या उनके पास कोई नया नेतृत्व है? गुजरात में कांग्रेस बहुत दयनीय स्थिति में है."
उनका कहना है कि विपक्षी दल के तौर पर राज्य में कांग्रेस की कोई प्रभावी भूमिका नहीं रही है.
पूर्व कांग्रेस सांसद डॉ. प्रभाबेन तावियाड ने राहुल गांधी के भाषण को सकारात्मक रूप से देखा. उन्होंने कहा, "जो लोग कांग्रेस में हैं और भाजपा से उनके संबंध हैं, उनका अब पर्दाफाश हो जाएगा."
वरिष्ठ पत्रकार हरेश झाला कहते हैं, "अगर राहुल गांधी नेताओं को हटाते हैं तो इससे कार्यकर्ताओं में बड़ा संदेश जाएगा और पार्टी के हित में इसकी बड़ी असर होगा. लेकिन, अगर अभी बोलने के बाद भी वह कोई कार्रवाई नहीं करते हैं, तो पहले से निराश कार्यकर्ता और ज़्यादा निराश हो सकते हैं."
कांग्रेस कार्यकर्ता बालू भाई पटेल ने राहुल गांधी के भाषण के बारे में कहा, "उन्होंने कांग्रेस की कमी को स्वीकार किया है. आत्मनिरीक्षण गांधी जी का दिया हुआ मंत्र है. हमें पहले यह देखना चाहिए कि हम कहां गलत हैं और हमें क्या करना है?"
कांग्रेस के सामने मुश्किलें कम नहींगुजरात में लगातार चर्चा होती है कि कांग्रेस गुटबाजी से घिरी हुई है और उसे नए नेतृत्व की ज़रूरत है.
पूर्व मुख्यमंत्री सुरेश मेहता कहते हैं, "अगर गुजरात की राजनीति में दोनों पार्टियों की तुलना करें तो कांग्रेस में सुधार की गुंजाइश है, लेकिन अगर वह लोगों तक नहीं पहुंचेगी तो कुछ भी संभव नहीं है."
वरिष्ठ पत्रकार हरेश झाला कहते हैं, "राहुल गांधी चाहते हैं कि गुजरात में कांग्रेस मज़बूत बने, लेकिन इसके लिए आपके पास मज़बूत सेना और मज़बूत सेनापति दोनों होने चाहिए. दुर्भाग्य से गुजरात कांग्रेस के पास दोनों नहीं हैं."
वो कहते हैं, "गुजरात कांग्रेस को एक ऐसे नेता की ज़रूरत है जो लड़ाकू हो. एक हक़ीक़त यह भी है कि कांग्रेस के पास संगठन चलाने के लिए पैसा नहीं है."
"गुजरातियों के मन में एक ही बात है कि मुसलमानों से हमें कौन बचाएगा. विकास की बातें गुजरातियों के दिलो-दिमाग में घर कर गई हैं. मोदी के नेतृत्व से गुजरात में बीजेपी को भी फ़ायदा हो रहा है."
वो कहते हैं, "ऐसे में कांग्रेस का इन चुनौतियों से पार पाना मुश्किल है."

कांग्रेस कार्यकर्ता बालू भाई पटेल कहते हैं, "कांग्रेस गुजरात में जनसंपर्क के ज़रिए ही सफल होगी. गुजरात की एक पूरी पीढ़ी को पता ही नहीं है कि कांग्रेस का नेतृत्व कैसा था? कांग्रेस को नई पीढ़ी तक पहुंचने की ज़रूरत है."
डॉ. प्रभाबेन तावियाड कहती हैं, "कांग्रेस को बड़ी संख्या में महिलाओं और युवाओं को जोड़ना होगा, इसके बिना कोई रास्ता नहीं है. लोग भाजपा का विकल्प चाहते हैं, लेकिन कांग्रेस विकल्प देने में सक्षम नहीं है."
"ज़िला स्तर पर सभी कांग्रेस पदाधिकारियों को समय-समय पर बदला जाना चाहिए और अब ईमानदार कार्यकर्ताओं को नियुक्त किया जाना चाहिए."
कांग्रेस कार्यकर्ता सतीश चावड़ा कहते हैं, "गुजरात में कांग्रेस के पास 30 साल से सत्ता नहीं है. बीजेपी के पास अपार धन और मीडिया की शक्ति है. ऐसे में कांग्रेस को लड़ने के काबिल बनाना बहुत मुश्किल काम है."
सेवादल की खस्ता हालत, युवाओं की कमीएक समय सेवा दल को कांग्रेस का मजबूत अंग माना जाता था और छात्र संगठन भी मजबूत था. लेकिन, गुजरात में अब इसकी हालत बहुत ख़राब है.
बीबीसी ने कांग्रेस सेवा दल के अध्यक्ष लालजी देसाई से भी बात की.
लालजी देसाई कहते हैं, "2018 से सेवा दल को फिर से स्वायत्त और क्रांतिकारी बनाने का निर्णय लिया गया और हमने सेवा दल को फिर से खड़ा करने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं."
वो बताते हैं, "कांग्रेस ने हाल ही में कई राज्यों में जो पदयात्राएं शुरू की हैं, उसके पीछे सेवा दल ही है. 2019 में सेवा दल का अधिवेशन भी 35 साल बाद हुआ था."
"गुजरात में भी सेवा दल ने जनता की लड़ाई को लेकर सक्रियता बढ़ाई है. सेवा दल जो 'नेता सेवा' की भूमिका में आ गया था, अब 'जन सेवा' की ओर लौट रहा है."
उन्होंने कहा,"हमने 'गार्ड ऑफ़ ऑनर' हटाकर तिरंगा फहराने की प्रथा शुरू की है. हमने सेवा दल का ड्रेस कोड भी बदल दिया है, जींस को अनुमति दे दी गई है."
"युवाओं को आकर्षित करने के लिए हमने हर तालुका में कार्यक्रम शुरू किए हैं और पहला प्रयास हर तालुका में सेवा दल की एक नई मज़बूत टीम तैयार करना है."
लालजी देसाई कहते हैं, "गुजरात में इस समय सेवा दल के दो हज़ार कार्यकर्ता हैं, जिनमें से 500 कार्यकर्ता विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध मज़बूत कार्यकर्ता हैं."
"हमारा पहला लक्ष्य इस 500 की संख्या को 5000 तक ले जाना है. हम कोशिश करेंगे कि हर बूथ पर उनकी अच्छी-खासी मौजूदगी हो."
वरिष्ठ पत्रकार हरेश झाला कहते हैं, "फ्रंटल संगठनों को मज़बूत करना मुश्किल नहीं है, लेकिन फंड की कमी है. इसका असर छात्र विंग और सेवा दल पर भी पड़ा है."
प्रो. विद्युत जोशी कहते हैं, "जब इंदिरा गांधी 1980 में दोबारा सत्ता में आईं, तो उन्हें लगा कि सेवा दल मोरारजी देसाई का समर्थन करता है, मेरा नहीं. इसलिए उन्होंने सेवा दल को भंग कर दिया.
सेवा दल के भंग होने से कांग्रेस में युवाओं की भर्ती धीरे-धीरे बंद हो गई. इसका असर ये हुआ कि कांग्रेस के पास अब कार्यकर्ता नहीं हैं, सिर्फ़ नेताओं के बच्चे ही बचे हैं."
प्रो. ढोलकिया कहते हैं, "गुजरात के युवा मतदाताओं को कांग्रेस नेतृत्व और कांग्रेस की नीतियों के बारे में कोई जानकारी नहीं है. उन्होंने हमेशा मोदी या भाजपा का शासन देखा है."
"कांग्रेस ने युवाओं के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया है. कांग्रेस को गांव-गांव जाकर जनसंपर्क करना होगा. मुझे लगता है कि गुजरात में कांग्रेस को फिर से खड़ा करना बहुत मुश्किल है."
ये भी पढ़ेंगुजरात में कांग्रेस ने 1985 में सबसे अधिक सीटें जीतने का रिकॉर्ड बनाया था. तब कांग्रेस ने 182 में से 149 सीटें जीत ली थीं.
1990 के चुनाव में कांग्रेस के चिमन भाई पटेल ने जनता दल बनाकर चुनाव लड़ा और कांग्रेस को केवल 33 सीटें मिलीं. इस चुनाव में गुजरात में भाजपा की बड़ी उपस्थिति दर्ज हुई और उसने 67 सीटें जीतीं.
इससे पहले, 1980 और 1985 में भाजपा को गुजरात में बड़ी सफलता नहीं मिली थी.
1995 में भाजपा ने पहली बार गुजरात में पूर्ण बहुमत से चुनाव जीता और 121 सीटों के साथ सरकार बनाई.
इसके बाद, कांग्रेस धीरे-धीरे कमजोर होती गई और 1998 में कांग्रेस ने 53 सीटें, 2002 में 51, 2007 में 59 और 2012 में 61 सीटें जीतीं.
2017 के चुनावों से पहले गुजरात में पाटीदार आंदोलन हुआ था और हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर की तिकड़ी ने गुजरात में भाजपा के ख़िलाफ़ एक मज़बूत सत्ता विरोधी लहर पैदा की थी.
हालांकि, कांग्रेस को 77 सीटें मिलीं और वह सरकार नहीं बना सकी. लेकिन, भाजपा 99 सीटों के साथ बमुश्किल सरकार बना सकी.
उस चुनाव में भले ही कांग्रेस एक मज़बूत विपक्ष के रूप में उभरी, लेकिन पार्टी के भीतर गुटबाजी बढ़ती गई. हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर जैसे नेताओं ने कांग्रेस छोड़ दी.

2012 से 2023 तक 45 से अधिक कांग्रेस विधायक या सांसद पार्टी छोड़ चुके हैं. पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष अर्जुन मोढवाडिया, जो 40 वर्षों तक कांग्रेस में रहे, उन्होंने भी पार्टी छोड़ दी.
2022 के चुनाव में इसका इतना बुरा असर हुआ कि कांग्रेस महज 17 सीटों पर सिमट गई. गुजरात के इतिहास में ये कांग्रेस को मिली सबसे कम सीटें थी.
गुजरात में तीसरी पार्टी आम आदमी पार्टी भी उभरी और उसने पांच सीटें जीतकर कांग्रेस को भारी नुकसान पहुंचाया.
कांग्रेस से जीते हुए 17 विधायकों में से पांच कांग्रेस छोड़कर चले गए और अब उसके पास केवल 12 विधायक रह गए हैं.
2009 में लोकसभा में गुजरात से कांग्रेस के 26 में से 11 सांसद थे. 2014 और 2019 में यह संख्या शून्य हो गई, जबकि 2024 में कांग्रेस एक सीट जीत पाई.
पिछले महीने 68 नगरपालिकाओं में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में कांग्रेस केवल एक नगरपालिका ही जीत सकी और अब आम आदमी पार्टी से भी उसे चुनौती का सामना करना पड़ रहा है.
गुजरात बीजेपी के प्रवक्ता यज्ञेश दवे बीबीसी से बात करते हुए कहते हैं कि अधिवेशन आयोजित करने से कांग्रेस की स्थिति में कोई सुधार नहीं होगा.
वो कहते हैं, "गुजरात में अधिवेशन आयोजित करना कांग्रेस का अंदरूनी मामला है. हम सभी ने गुजरात में स्थानीय निकाय चुनावों के हालिया नतीजे देखे हैं. कांग्रेस सिर्फ़ एक नगरपालिका जीतने में कामयाब रही है."
कांग्रेस के पास अब रास्ता क्या है?गांधीवादी प्रकाश शाह कहते हैं, "अगर कांग्रेस खुद नवजीवन की ओर बढ़ना चाहती है, तो उसे न केवल भावनगर अधिवेशन को याद रखना चाहिए, बल्कि 1969 में कांग्रेस से अलग होकर अधिवेशन आयोजित करने वाले लोगों को भी याद रखना चाहिए और उन सभी नेताओं की साझा विचारधारा और साझी विरासत को आगे लेकर चलना चाहिए."
शाह कहते हैं कि इस साझी विरासत में गांधी, नेहरू और पटेल के साथ जयप्रकाश नारायण, कृपलानी और लोहिया की विचारधाराएं भी शामिल हैं.
वरिष्ठ कार्यकर्ता बालूभाई पटेल कहते हैं, "राहुल गांधी ने जो बात की है, उसी दिशा में हमें टिके रहना चाहिए. यह हो सकता है कि हमें उस दिशा में देर से सत्ता मिले."
पूर्व मुख्यमंत्री सुरेश मेहता कहते हैं, "गुजरात के लोग हमेशा से तीन चीज़ें- भावनाएं, लालच और भय के प्रति संवेदनशील रहे हैं, मौजूदा भाजपा सरकार बेहद निम्न स्तर पर पहुँच गई है."
"ऐसा लगता है कि उन्हें लोगों की कोई परवाह नहीं है."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित
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