तिरपाल से ढकी झोपड़ी की बेटी अब वैज्ञानिक पहचान बन चुकी है.
17 साल की पूजा, जो उत्तर प्रदेश के एक छोटे गांव में तिरपाल और घास-फूस से बने घर में रहती हैं, हाल ही में जापान से लौटकर आई हैं.
वजह है उनका वैज्ञानिक मॉडल, जिसने राष्ट्रीय स्तर पर पहचान पाई और अब केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय उसे पेटेंट करा रहा है.
पूजा के घर के सामने से गुज़रने वाले हर व्यक्ति की नज़र अब ठहर सी जाती है.
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सीमित संसाधनों में रहने वाली पूजा को चार साल पहले, जब वह आठवीं कक्षा में थीं, डस्ट-फ्री थ्रेशर का मॉडल बनाने का आइडिया आया.
इस मॉडल में समय के साथ उन्होंने कई सुधार किए और साल 2023 में यह मॉडल 'इंस्पायर' अवॉर्ड की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में चुना गया. देशभर के 60 विजेताओं में उत्तर प्रदेश से सिर्फ पूजा का चयन हुआ.
इन सभी 60 विजेताओं को एक एक्सचेंज प्रोग्राम के ज़रिए जापान भेजा जाता है.
पूजा कहती हैं, "जबसे जापान से लौटकर आई हूं, तबसे जो भी हमारे दरवाज़े से गुज़रता है, वह एक बार ज़रूर देखता है. लोग कहते हैं, इसी घर की लड़की विदेश होकर आई है."
उनके घर में सात लोग रहते हैं, न सरकारी आवास है, न शौचालय. एक कोने में पढ़ाई होती है, दूसरे कोने में चूल्हा जलता है लेकिन इसी घर से एक अंतरराष्ट्रीय स्तर की सफलता निकली है.

पूजा के पिता पुत्तीलाल दिहाड़ी मज़दूर हैं और मां स्थानीय प्राथमिक विद्यालय में कुक हैं. तीन बहन और दो भाइयों में पूजा दूसरे नंबर की संतान हैं. इस समय वह जगदीशचंद्र फतेहराय इंटर कॉलेज में 12वीं की छात्रा हैं.
पूजा को वैज्ञानिक सोच की दिशा में पहला आइडिया उस समय आया जब वह अगेहरा गांव के उच्च प्राथमिक विद्यालय में आठवीं में पढ़ रही थीं. स्कूल के पास चल रहे थ्रेशर से उड़ती धूल खिड़की से कक्षा में आ रही थी, जिससे पढ़ाई और सांस लेने में दिक्कत हो रही थी.
पूजा बताती हैं, "मैंने ये बात राजीव सर को बताई और पूछा, सर हम इस धूल को कैसे रोक सकते हैं? कुछ दिन बाद घर में मां को आटा छानते देखा, तो आटा चलनी से मुझे इस धूल को रोकने का विचार आया."
"इसके बाद राजीव सर की मदद से सबसे पहले चार्ट पेपर पर मॉडल का स्केच बनाया गया. फिर कागज़ और लकड़ी से मॉडल तैयार किया, लेकिन वह सटीक नहीं था. बाद में वेल्डिंग मशीन से टीन की मदद से अंतिम मॉडल बनाया गया."
पूजा के इस मॉडल का नाम है: 'भूसाधूल पृथक्करण यंत्र'.
यह अनाज निकालने के दौरान उड़ने वाली धूल और फेफड़ों को प्रभावित करने वाले सूक्ष्म कणों को रोकने में मदद करता है. यह न सिर्फ किसानों के लिए उपयोगी है, बल्कि खुले में काम करने वाले मज़दूरों और महिलाओं की सेहत की दृष्टि से भी अहम है.
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पूजा की इस उपलब्धि में उनके साइंस के टीचर राजीव श्रीवास्तव का भी अहम योगदान है. वे न सिर्फ उनके गाइड टीचर रहे, बल्कि शुरुआत से लेकर मॉडल के अंतिम रूप तक हर स्तर पर उनका मार्गदर्शन किया.
राजीव श्रीवास्तव ने बीबीसी से कहा, "इंस्पायर अवॉर्ड एक बेहतरीन योजना है. इसके तहत बच्चों में विज्ञान के प्रति रुचि और नवाचार की क्षमता देखी जाती है. चयनित मॉडल्स के लिए सरकार 10 हज़ार रुपये देती है ताकि छात्र अपना प्रोटोटाइप बना सके. बच्चा चाहे जहां पहुंच जाए, लेकिन उसके आइडिया पर हमेशा उसका अधिकार रहता है."
स्थानीय विज्ञान मेले में जब पूजा ने अपना मॉडल पेश किया था, तब किसी ने नहीं सोचा था कि यह प्रोजेक्ट उन्हें जापान तक पहुंचा देगा. अब वही प्रोजेक्ट राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पहचान बना चुका है.
पूजा कहती हैं, "मेरा यही छप्परनुमा घर है. बारिश में पानी भर जाता है. पहले ढिबरी की रोशनी में पढ़ाई करते थे, अब पापा एक छोटी बैट्री ले आए हैं. उसी से पढ़ते हैं. कभी सोचा नहीं था कि ढलईपुरवा से निकलकर जापान पहुंचूंगी. अब गांव और बाहर के लोग कहते हैं- देखो, ढलईपुरवा की लड़की जापान होकर आई है."
पूजा स्कूल का एक और किस्सा याद करते हुए मुस्कुराती हैं, "एक दिन प्रिंसिपल सर ने मुझे पूरी क्लास के सामने खड़ा किया और कहा, 'इनका नाम पूजा है, ये जापान से आई हैं. आप लोग भी मन लगाकर पढ़ो.' उस दिन मुझे बहुत अच्छा लगा."
पूजा की जापान यात्रा यादगार रही.
वो बताती हैं, "पहले हवाई जहाज़ में बैठने की बात सुनकर ही रोमांच होता था. रातों में ख्वाब आता था कि कैसे होगा सब. बाराबंकी जाना भी बड़ा लगता था, लेकिन इसी मॉडल ने लखनऊ, दिल्ली और फिर जापान तक पहुंचा दिया."
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पूजा की मां सुनीला भी अब अपनी बेटी की उपलब्धि पर गर्व से भर जाती हैं, लेकिन रास्ता आसान नहीं रहा.
वो बताती हैं, "पहले लोग कहते थे कि ये तो खेल-कूद में लगी रहती है, लेकिन अब सब तारीफ़ करते हैं. हमें बहुत लोगों का साथ मिला, अगर नहीं मिलता तो कौन जानता कि पूजा कौन है, और उसकी मां कौन है. हमारे बच्चों के पास कपड़े कम होंगे, लेकिन कॉपी-किताबें पूरी मिलेंगी."
सुनीला कहती हैं कि गांव में गरीबी को लेकर जो बातें होती हैं, उन्हें सुनना रोज़ की बात है.
"हमारी हालत देखकर लोग कहते हैं कि बच्चों को धान लगाने भेज दो. हम सबसे हाथ जोड़कर कहते हैं कि हम नमक-रोटी खा लेंगे, लेकिन बच्चों से मज़दूरी नहीं करवाएंगे. हमारी बड़ी बेटी बीकॉम कर रही है. सब बच्चे साइकिल से स्कूल जाते हैं."
बुनियादी ज़रूरतों का ज़िक्र करते हुए माँ का स्वर भावुक हो जाता है, "हमारे पास न आवास है, न शौचालय. सब लोग बाहर शौच के लिए जाते हैं. जब ये बच्चे कमाने लगेंगे, तब शायद ये सब हो जाएगा."
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पूजा को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने वाली योजना 'इंस्पायर अवार्ड मानक' भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की एक पहल है, जिसकी शुरुआत 2006 में हुई थी.
इस योजना का उद्देश्य स्कूली बच्चों में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना है. साल 2023 में इस योजना के तहत देशभर से सात लाख से अधिक छात्रों ने आवेदन किया था. इनमें से एक लाख प्रतिभागियों को अपने-अपने आइडिया पर मॉडल विकसित करने के लिए 10 हज़ार रुपये की प्रोत्साहन राशि दी गई.
इन एक लाख प्रोजेक्ट्स में से 441 मॉडल को राष्ट्रीय स्तर की प्रदर्शनी के लिए चुना गया. इनमें से हर साल 60 टॉप प्रोजेक्ट्स को जापान में आयोजित 'सकूरा साइंस एक्सचेंज प्रोग्राम' में भाग लेने का अवसर दिया जाता है.
इसी सूची में पूजा का नाम भी शामिल हुआ.
लखनऊ मंडल के विज्ञान प्रगति अधिकारी डॉ. दिनेश कुमार ने बीबीसी से बातचीत में बताया, "इंस्पायर योजना का मकसद बच्चों के अंदर विज्ञान के प्रति रुचि विकसित करना है. कोई भी छात्र अपने आसपास की किसी समस्या का समाधान सुझाते हुए 150 से 300 शब्दों का सिनॉप्सिस बनाकर भारत सरकार के इंस्पायर पोर्टल पर अपलोड कर सकता है."
उन्होंने बताया कि अब यह योजना कक्षा 6 से 12 तक के छात्रों के लिए खुली है. पहले यह केवल दसवीं कक्षा तक सीमित थी. चयन प्रक्रिया के बारे में उन्होंने कहा कि ज़िलेवार आवेदनों में से 10 प्रतिशत का चयन राज्य स्तर पर और फिर राष्ट्रीय स्तर पर किया जाता है.
डॉ. दिनेश ने कहा, "पूजा एक ग़रीब परिवार से है, लेकिन राजीव श्रीवास्तव जैसे शिक्षक के मार्गदर्शन ने उसे बहुत आगे पहुंचाया है. इस वर्ष योजना के लिए आवेदन की अंतिम तिथि 15 सितंबर 2025 है. इच्छुक विद्यालय बच्चों के आइडिया इंस्पायर पोर्टल पर अपलोड कर सकते हैं."
नौकरी कर पिता की मदद करना चाहती है पूजापूजा के पिता पुत्तीलाल रोज़ मज़दूरी करके अपने परिवार का गुज़ारा चलाते हैं.
दिनभर की मेहनत के बदले उन्हें 500–600 रुपये ही मिलते हैं, लेकिन आज वही मेहनत उनकी बेटी की कामयाबी में तब्दील हो गई है.
अपनी बेटी की सफलता पर पुत्तीलाल भावुक होकर कहते हैं, "जब लोग कहते हैं कि तुमने मज़दूरी करके अपनी बेटी को जापान तक पहुंचा दिया, तो सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है. मुझे लगता है मेरी मेहनत सफल हो गई. इसके जापान जाने से मेरा बहुत नाम हो गया. एक मज़दूर आदमी को जीवन में और क्या चाहिए — मेरी बेटी ने मुझे सब कुछ दे दिया."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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