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भारतीय जनता पार्टी के जन्म लेने और 'गांधीवादी समाजवाद अपनाने' की कहानी

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जब सन 1980 में इंदिरा गांधी ने सत्ता में वापसी की तो जनता सरकार में उप-प्रधानमंत्री रहे जगजीवन राम ने 28 फ़रवरी को एलान किया कि वो दोहरी सदस्यता के मुद्दे को छोड़ेंगे नहीं और इस पर आख़िरी फ़ैसला लेकर ही रहेंगे.

दोहरी सदस्यता यानी जनता पार्टी और आरएसएस दोनों की सदस्यता एक साथ होना, इस पर कई बड़े नेताओं को गहरा एतराज़ था.

चार अप्रैल को जनता पार्टी की कार्यकारिणी ने तय किया कि जनसंघ के लोग अगर आरएसएस नहीं छोड़ेंगे तो उन्हें जनता पार्टी से निकाल बाहर किया जाएगा लेकिन जनसंघ के सदस्यों को इसका पहले से ही अंदाज़ा लग गया था.

किंशुक नाग अपनी किताब 'द सैफ़रन टाइड, द राइज़ ऑफ़ द बीजेपी' में लिखते हैं, "पाँच और छह अप्रैल, 1980 को जनता पार्टी के जनसंघ घटक ने दिल्ली के फ़िरोज़ शाह कोटला स्टेडियम में बैठक की जिसमें करीब तीन हज़ार सदस्यों ने भाग लिया और यहीं भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की घोषणा की गई."

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अटल बिहारी वाजपेयी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया जबकि लालकृष्ण आडवाणी को सूरज भान और सिकंदर बख़्त के साथ पार्टी का महासचिव बनाया गया.

1980 के चुनाव में जनता पार्टी सिर्फ़ 31 सीटें जीत पाई थी जिसमें जनसंघ घटक के 16 सदस्य थे यानी तकरीबन आधे.

इन सभी लोगों ने राज्यसभा के 14 सदस्यों, पाँच पूर्व कैबिनेट मंत्रियों, आठ पूर्व राज्य मंत्रियों और छह पूर्व मुख्यमंत्रियों के साथ नई पार्टी में शामिल होने का फ़ैसला किया. इन सबने दावा किया कि वो ही असली जनता पार्टी हैं.

image Getty Images चुनाव आयोग ने दिया कमल चुनाव चिन्ह

जब जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर ने जनसंघ से जुड़े रहे नेताओं के इस दावे को चुनौती दी कि वो ही असली जनता पार्टी हैं तो शुरू में चुनाव आयोग ने उनके विरोध को नहीं माना.

आयोग ने भारतीय जनता पार्टी को सीधे राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दे दिया और जनता पार्टी के चुनाव चिह्न 'हलधर किसान' को कुछ समय के लिए फ़्रीज़ कर दिया. चुनाव आयोग ने भारतीय जनता पार्टी को कमल चुनाव चिह्न दिया.

इससे पहले भारतीय जनता पार्टी ने चक्र और हाथी चुनाव चिह्न देने का अनुरोध किया था जिसे चुनाव आयोग ने स्वीकार नहीं किया.

चंद्रशेखर ने चुनाव आयोग से चुनाव चिह्न फ़्रीज़ किए जाने के फ़ैसले की समीक्षा करने का अनुरोध किया. छह महीने बाद चुनाव आयोग ने चंद्रशेखर के अनुरोध को मानते हुए हलधर किसान चुनाव चिह्न को अनफ़्रीज़ कर दिया लेकिन भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा बरकरार रहा.

image Getty Images पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर बाहरी नेताओं को तरजीह

शुरू में भारतीय जनता पार्टी में ग़ैर-आरएसएस नेताओं को नज़रअंदाज़ नहीं किया गया.

नलिन मेहता अपनी किताब 'द न्यू बीजेपी' में लिखते हैं, "बीजेपी ने पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण, मशहूर वकील राम जेठमलानी, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज केएस हेगड़े और पूर्व कांग्रेस नेता सिकंदर बख़्त का न सिर्फ़ खुले दिल से स्वागत किया बल्कि उन्हें मंच पर भी बिठाया. दिलचस्प बात ये थी कि पार्टी का संविधान बनाने वाली तीन सदस्यीय समिति के दो सदस्य संघ से बाहर के थे."

राम जेठमलानी विभाजन के बाद सिंध से शरणार्थी के तौर पर आए थे जबकि सिकंदर बख़्त दिल्ली के मुसलमान थे.

सिकंदर बख़्त ने ही पार्टी अध्यक्ष के तौर पर वाजपेयी के नाम का प्रस्ताव किया था जिसको राजस्थान के बीजेपी नेता भैरों सिंह शेख़ावत ने अपना समर्थन दिया था.

image Getty Images बीजेपी नेता सिकंदर बख़्त
'गांधीवादी समाजवाद' को अपनाया

बीजेपी के जन्म लेने से पहले इस बात पर भी बहस हुई कि नई पार्टी का नाम क्या रखा जाए. वाजपेयी नई विचारधारा के साथ पार्टी का नया नाम भी चाहते थे.

बीजेपी के आधिकारिक दस्तावेज़ों के अनुसार पार्टी के पहले सत्र में आए लोगों से जब पार्टी के नाम के बारे में पूछा गया तो तीन हज़ार में से सिर्फ़ 6 सदस्यों ने पुराने नाम जनसंघ को जारी रखने का समर्थन किया.

अंतत: भारतीय जनता पार्टी नाम रखने पर सहमति हुई. वैचारिक रूप से पार्टी ने 'गांधीवादी समाजवाद' को अपनाया लेकिन शुरू में इसे पार्टी के कई हलकों में समर्थन नहीं मिला.

किंशुक नाग लिखते हैं, "विजयराजे सिंधिया के नेतृत्व में कई बीजेपी नेता 'समाजवाद' शब्द का इस्तेमाल करने के बारे में सशंकित थे क्योंकि इससे कम्युनिस्टों के साथ वैचारिक मेलजोल का आभास मिलता था जिससे आरएसएस हर हालत में दूर रहना चाहता था. कुछ दूसरे नेताओं का विचार था कि 'गांधीवादी समाजवाद' को अपनाकर पार्टी पर नकलची होने और कांग्रेस की विचारधारा को अपनाने का आरोप लगेगा."

ये भी माना जाता है कि उस समय आरएसएस के प्रमुख बाला साहब देवरस भी 'गांधीवादी समाजवाद' को अपनाने के पक्ष में नहीं थे लेकिन बाद में वो इसके लिए राज़ी हो गए थे.

किंशुक नाग लिखते हैं, "आरएसएस के लोग ग़ैर-हिंदुओ को, जिसमें मुसलमान भी शामिल थे, पार्टी में शामिल करने पर ख़ुश नहीं थे. लेकिन इसके बावजूद पार्टी में इस बात पर ज़ोर था कि जनसंघ की पुरानी विचारधारा को भूलकर नई शुरुआत की जाए. शायद इसी वजह से पार्टी के मंच पर श्यामाप्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय के चित्रों के साथ-साथ जयप्रकाश नारायण के चित्र भी लगे हुए थे."

image Rupa Publications बंबई में पार्टी का महाधिवेशन बुलाया गया

दिसंबर, 1980 के अंतिम हफ़्ते में बंबई में पार्टी का पूर्ण अधिवेशन बुलाया गया जिसमें पार्टी के हज़ारों सदस्यों ने भाग लिया.

लालकृष्ण आडवाणी अपनी आत्मकथा 'माई कंट्री, माई लाइफ़' में दावा करते हैं कि तब तक देश भर में 25 लाख लोग भारतीय जनता पार्टी के सदस्य बन चुके थे. जनसंघ के चरम पर भी पार्टी के सदस्यों की संख्या 16 लाख से अधिक नहीं थी.

सुमित मित्रा ने इंडिया टुडे की 31 जनवरी, 1981 में छपी अपनी रिपोर्ट 'बीजेपी कन्वेंशन, ओल्ड वाइन इन न्यू बॉटल' में लिखा था, 'बीजेपी के कुल 54,632 प्रतिनिधियों में 73 फ़ीसदी पाँच राज्यों महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार से आए थे. बंबई के बाँद्रा रिक्लेमेशन क्षेत्र में एक अस्थायी बस्ती बनाई गई.'

सम्मेलन 28 दिसंबर को शुरू हुआ था और उसमें 40 हज़ार लोगों के रहने और खाने का इंतज़ाम किया गया था. दोपहर तक 44 हज़ार प्रतिनिधि सभास्थल पर पहुंच चुके थे. शाम तक और प्रतिनिधियों के पहुंचने की उम्मीद थी.

पार्टी के महासचिव लालकृष्ण आडवाणी को ये अनुरोध करना पड़ा कि अगर संभव हो तो पार्टी सदस्य सभास्थल के बाहर भोजन करें.

image Rupa Publications वाजपेयी को समारोहपूर्वक शिवाजी पार्क ले जाया गया

सभास्थल में हर जगह पार्टी के नए झंडे लगे हुए थे. इसका एक तिहाई हिस्सा हरा और दो तिहाई हिस्सा केसरिया था.

28 दिसंबर, 1980 की शाम 28 एकड़ में फैले शिवाजी पार्क में पार्टी का खुला सत्र हुआ था जिसमें आम लोगों को भी भाग लेने की छूट थी.

विनय सीतापति अपनी किताब 'जुगलबंदी, द बीजेपी बिफ़ोर मोदी' में लिखते हैं, "पार्टी के नए अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने सभास्थल से शिवाजी पार्क का चार किलोमीटर का रास्ता खुली जीप में तय किया था. स्थानीय लोगों और हिंदु राष्ट्रवाद की भावना को मूर्त रूप देने के लिए मराठी सैनिक की वेशभूषा में एक व्यक्ति घोड़े पर सवार होकर सबसे आगे चल रहा था. उसके पीछे ट्रकों का एक काफ़िला था, ट्रकों पर दीनदयाल उपाध्याय और जय प्रकाश नारायण के चित्र लगे हुए थे."

आरएसएस के प्रमुख बाला साहब देवरस के भाई भाऊराव देवरस भी वहाँ मौजूद थे. वहाँ मौजूद आरएसएस के नेता शेषाद्रि चारी ने स्वीकार किया था कि उनके लिए जयप्रकाश नारायण के 'गांधीवादी समाजवाद' को पचा पाना मुश्किल हो रहा था.

प्रवीण तोगड़िया ने भी एक इंटरव्यू में कहा था, "बीजेपी के अधिकांश सदस्य गांधीवादी समाजवाद और पार्टी का झंडा बदलने से सहमति नहीं रखते थे. मुझे ये पता था क्योंकि उस समय मैं स्वयंसेवक हुआ करता था. ये असहमति चारों तरफ़ व्याप्त थी लेकिन इसे मुखर नहीं होने दिया गया था."

image Getty Images विश्व हिंदू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया विजयराजे सिंधिया का प्रखर विरोध

पार्टी की वरिष्ठ नेता विजयराजे सिंधिया ने पार्टी की नई विचारधारा के प्रति अपने विरोध को छिपाया नहीं था. उनकी नज़र में इंदिरा गांधी के समाजवाद ने ही रजवाड़ों से उनकी ताकत छीनी थी.

उन्होंने अपना खुद का पाँच पन्नों का एक विरोध मसौदा प्रतिनिधियों के बीच बंटवाया जिसमें कहा गया कि 'गांधीवादी समाजवाद' का नारा आम बीजेपी कार्यकर्ता के बीच भ्रम पैदा करेगा क्योंकि ये नारा सिर्फ़ प्रगतिशील दिखने के लिए लाया गया है. ये बीजेपी को कांग्रेस की फ़ोटो कॉपी बनाकर रख देगा और इससे उसकी मौलिकता नष्ट हो जाएगी.

बाद में उन्होंने अपनी किताब 'रॉयल टू पब्लिक लाइफ़' में लिखा था, "मैंने इस परिवर्तन के प्रति अपना विरोध दर्ज किया था लेकिन इसके बावजूद इसे बंबई सम्मेलन में पार्टी के मार्गदर्शक सिद्धांत के तौर पर स्वीकार कर लिया गया था. कई पार्टी नेताओं का मानना था कि अब जब हम जनता पार्टी से बाहर आ गए हैं तो 'गांधीवादी समाजवाद' का सहारा लेने की कोई ज़रूरत नहीं है."

क्रिस्टोफ़र जैफ़रलेट अपनी किताब 'द हिंदु नेशनलिस्ट मूवमेंट एंड इंडियन पॉलिटिक्स' में लिखते हैं, "आखिरकार एक बीच का रास्ता निकाला गया और राजमाता को सार्वजनिक रूप से अपना विरोध-पत्र वापस लेने के लिए मना लिया गया. उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर घोषणा की थी कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने उन्हें स्पष्ट किया है कि बीजेपी का समाजवाद मार्क्स के समाजवाद के बिल्कुल उलट है."

कहा गया कि बीजेपी के समाजवाद का आशय दीनदयाल उपाध्याय के 'जनकल्याणवाद' और 'एकात्म मानववाद' से है.

वाजपेयी ने इस पूरी बहस में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि पार्टी 'गांधीवादी समाजवाद' की अपनी विचारधारा से पीछे नहीं हटेगी.'

image Getty Images बीजेपी नेता विजयराजे सिंधिया 'सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता' की वकालत

30 दिसंबर की रात दिए अपने भाषण में वाजपेयी ने घोषणा की थी कि बीजेपी ने बाबा साहब आंबेडकर के समता सिद्धांत को अपना लिया है. उन्होंने अपनी पार्टी की 'सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता' की अवधारणा भी स्पष्ट की.

ये 17वीं सदी में मराठा राजा शिवाजी के अल्पसंख्यकों के प्रति अपनाई गई नीति के अनुरूप थी. वाजपेयी ने कहा कि आगरा में छत्रपति शिवाजी की हिरासत के दौरान उनका सेवक एक मुसलमान था.

वाजपेयी ने कहा कि सन 1661 में शिवाजी ने अपना कोंकण अभियान केलशी के मुस्लिम संत याकूतबाबा के आशीर्वाद के साथ शुरू किया था.

अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, "जनता पार्टी टूट ज़रूर गई है लेकिन हम जयप्रकाश नारायण के सपनों को कभी टूटने नहीं देंगे."

उन्होंने समाचारपत्रों में छपी ख़बर का खंडन किया कि पार्टी में 'गाँधीवादी समाजवाद' को लेकर कोई मतभेद है. इस शब्द का मूल अर्थ पूँजीवाद और साम्यवाद को अस्वीकार करना है.

वाजपेयी के भाषण के अंतिम शब्द थे, "पश्चिमी घाट पर समुद्र के किनारे खड़े होकर मैं भविष्य के बारे में विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि अँधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा और कमल खिलेगा."

सम्मेलन से लौटने के बाद ऑनलुकर पत्रिका के संपादक जनार्दन ठाकुर ने लिखा, "मैं बीजेपी के बंबई सम्मेलन से इस उम्मीद के साथ लौटा हूँ कि एक न एक दिन अटल बिहारी वाजपेयी भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे. मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि वो प्रधानमंत्री बन सकते हैं. मैं ये कह रह रहा हूँ कि वो निश्चित रूप से प्रधानमंत्री बनेंगे. मेरी भविष्यवाणी किसी ज्योतिष विद्या पर आधारित नहीं है क्योंकि मैं ज्योतिषी नहीं हूँ. मैंने ये आंकलन उनको और उनकी पार्टी को बहुत ग़ौर से देखने के बाद किया है. वाजपेयी भविष्य की पार्टी के नेता हैं."

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मोहम्मद करीम चागला का बीजेपी को समर्थन

इस भाषण के दौरान मुख्य अतिथि थे नेहरू और इंदिरा के कैबिनेट में मंत्री रहे मोहम्मद करीम चागला.

विभाजन से पहले चागला ने मोहम्मद अली जिन्ना के असिस्टेंट की भूमिका भी निभाई थी.

अपनी आत्मकथा 'रोज़ेज़ इन दिसंबर' में उन्होंने लिखा था, "उस ज़माने में जिन्ना राजनीति और क़ानून दोनों क्षेत्रों में मेरे आदर्श हुआ करते थे. जब तक वो राष्ट्रवादी रहे, मैं उनके साथ रहा लेकिन जैसे-जैसे वो संप्रदायवादी होते चले गए और दो देशों के सिद्धांत की वकालत करने लगे, मेरे और उनके रास्ते अलग होते चले गए."

चागला ने जिन्ना से पूछा, पाकिस्तान मुख्य रूप से मुस्लिम बहुल राज्य के हित में होगा. लेकिन उन मुसलमानों का क्या होगा जो अल्पसंख्यकों के रूप में रह रहे हैं ?

जिन्ना का जवाब था, 'मेरी उनकी दशा में कोई दिलचस्पी नहीं है.' (रोज़ेज़ इन दिसंबर पृष्ठ 78-80).

पत्रिका 'द भवंस जरनल' के सितंबर, 1979 के अंक में चागला ने लिखा था, "मैँ हिंदू हूँ क्योंकि मैं अपनी विरासत अपने आर्य पूर्वजों से जोड़ कर देखता हूँ. असली हिंदुत्व को एक धर्म के तौर पर देखना ग़लत है. ये एक दर्शन और ज़िंदगी जीने का तरीका है."

image Getty Images पूर्व केंद्रीय मंत्री मोहम्मद करीम चागला नुस्ली वाडिया ने उठाया सम्मेलन का ख़र्च

अटल बिहारी वाजपेयी ने चागला का ये कहकर स्वागत किया कि वो धर्मनिरपेक्षता के प्रतीक हैं. जिन्ना के साथ काम करते हुए भी उन्होंने दो देशों के सिद्धांत का विरोध किया.

चागला ने इसका जवाब देते हुए कहा कि वाजपेयी भविष्य के प्रधानमंत्री हैं. उन्होंने वहाँ मौजूद प्रतिनिधियों से कहा, 'लोगों को बताइए कि आप न तो सांप्रदायिक दल हैं और न ही नए रूप में जनसंघ हैं. आप एक राष्ट्रीय पार्टी हैं जो अगले चुनाव में या इससे पहले इंदिरा गाँधी की जगह ले सकते हैं."

इस पूरे आयोजन में 20 लाख रुपए ख़र्च हुए जो उस ज़माने में एक बड़ी रकम थी.

विनय सीतापति लिखते हैं, "उस सम्मेलन में भाग लेने वाले एक बड़े बीजेपी नेता का कहना था कि इसके लिए अधिकतर धन मशहूर उद्योगपति नुस्ली वाडिया ने दिया था. 1970 का दशक समाप्त होते-होते जिन्ना के नाती नुस्ली वाडिया बीजेपी को धन देने वाले सबसे बड़े उद्योगपति बन चुके थे."

पार्टी की पहली बैठक के 16 वर्ष बाद 1996 में बीजेपी को पहली बार केंद्र में सरकार बनाने का न्योता मिला. लेकिन पार्टी संसद में अपना बहुमत साबित नहीं कर सकी और 13 दिनों के भीतर अटल बिहारी वाजपेयी को इस्तीफ़ा देना पड़ा.

लेकिन उसके बाद के अगले दो चुनावों में उसकी जीत हुई और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी सरकार ने सन 1998 में शपथ ली.

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