अजय कुमार शर्मा
ऐसा सौभाग्य विरले कलाकारों को ही मिलता है कि अपने निभाए किसी रोल के आधार पर ही दर्शक उनको पहचानने और जानने लगें । ललिता पवार के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। तेजतर्रार और जुल्म करने वाली सास के रूप में उन्होंने ऐसा जीवंत अभिनय किया कि लोग कठोर सास की उपमा ललिता पवार से ही करने लगे। ललिता पवार ने अपने 70 वर्ष के लंबे करियर में 700 से ज्यादा फिल्मों में अभिनय किया। इसमें हिंदी, मराठी, गुजराती और भोजपुरी के अलावा अनेकों मूक फिल्में भी शामिल हैं । आधुनिक पीढ़ी उन्हें रामानंद सागर के लोकप्रिय टीवी धारावाहिक रामायण में मंथरा की भूमिका के लिए याद करती है। ललिता पवार का जन्म 18 अप्रैल, 1916 को नासिक जिले के येवले गांव में हुआ था । वह जब पैदा हुईं तो उनका नाम अंबिका रखा गया। प्यार से लोग उन्हें अंबू बुलाते थे। उनके पिता कपड़ों के व्यापारी थे। उस जमाने में लड़कियों को स्कूल भेजने का रिवाज नहीं था। अत: वे कभी स्कूल नहीं जा पाईं। उनका फिल्म नगरी में आना अचानक ही हुआ । 1928 में वह अपने भाई और पिता के साथ पुणे में एक मूक फिल्म देखने गई और पात्रों को चलते-फिरते देखकर बड़ी आश्चर्यचकित हुईं। उन्होंने जानना चाहा कि यह कैसे होता है तब किसी ने बताया यह फिल्म है जो किसी स्टूडियो में तैयार होती है। इस दौरान शुक्रवार पेठ में आर्यन फिल्म कंपनी की किसी फिल्म की शूटिंग चल रही थी।
वे भी शूटिंग देखने लगीं और किसी भागदौड़ में लहूलुहान हो गईं। वहां के अभिनेता ने जब उन्हें उठाया और पूछा कि तुम क्या कर रही हो तो उस निर्भीक लड़की का जवाब था कि वह रामलीला देखने आई है। नाना साहेब सरपोतदार फिल्म के निर्देशक थे। जब उनसे पूछा गया कि तुम हमारी रामलीला में काम करोगी तो बालसुलभ मुस्कुराहट के साथ उन्होंने हां कर दी। उनके पिता लक्ष्मण राव को तैयार करने में काफी समय लगा। तब उनका फिल्मी नाम रखा गया ललिता। इस तरह 1928 में आई पतितोद्धार उनकी पहली फिल्म बनी। उनके अच्छे अभिनय को देखकर आर्यन फिल्म कंपनी ने उन्हें अपने यहां रख लिया। मूक फिल्मों में क्योंकि स्टंट का बोलबाला रहता था इसलिए यहां रहते हुए उन्होंने घुड़सवारी, स्विमिंग, तलवारबाजी, लाठी और अनेक स्टंट सीखे। 12 साल में बाल कलाकार के रूप में शुरू हुई उनकी अभिनय यात्रा धीरे-धीरे लीड रोल तक जा पहुंची। इस दौरान उनकी मुख्य फिल्में थीं – चतुर सुंदरी, वल्लीकुमारी, शमशेर बहादुर, पृथ्वीराज संयुक्ता आदि । उन्होंने चतुर सुंदरी में अकेले ही 17 पात्रों का अभिनय किया। बेंगलुरु में कई फिल्में करने के बाद वे बंबई (अब मुंबई) लौटीं।
निर्माता चंद्रराव कदम उनके काम से प्रभावित हुए और उन्होंने उनको कई फिल्मों के लिए अनुबंधित कर लिया। कदम साहब के साथ ही उनकी पहली बोलती फिल्म हिम्मत- ए – मर्दा थी, जिसमें उन्होंने गाने भी गाए थे। 1938 में उन्होंने दुनिया क्या है फिल्म बनाकर एक बार फिर निर्माता के रूप में अपनी किस्मत आजमाई। यह फिल्म रूसी लेखक टॉलस्टाय के उपन्यास पर आधारित थी। 1938 में आई नेताजी पालकर उनकी उल्लेखनीय मराठी फिल्म थी। 1941 में आई फिल्म अमृत उनकी पहली हिट फिल्म थी। राजा नेने और गजानन जागीरदार के साथ 1944 में आई ऐतिहासिक फिल्म रामशास्त्री से भी उन्हें काफी शोहरत मिली जिसमें उन्होंने आनंदीबाई पेशवा की सशक्त भूमिका निभाई थी। अब वे नायिका के रोल कर रहीं थीं कि तभी उनके साथ एक दुर्घटना हुई जिसके चलते उन्हें फिल्मों में चरित्र भूमिकाएं करने पर मजबूर होना पड़ा। जंग-ए-आजादी फिल्म की शूटिंग के दौरान जिसकी वे नायिका थीं, भगवान को उनके गाल पर थप्पड़ मारना था। लेकिन वह थप्पड़ इतनी जोर से लगा कि उनके कान से खून बहने लगा।
इलाज के बीच में डॉक्टर ने उन्हें गलत इंजेक्शन दे दिया जिसके कारण हुई एलर्जी से उनके चेहरे को लकवा मार गया और बाई आंख पूरी तरह से खराब हो गई। वे तीन साल तक कहीं कोई काम नहीं कर सकीं । थक-हारकर उन्हें चरित्र भूमिकाएं निभाने के लिए मजबूर होना पड़ा, हालांकि उन्होंने थप्पड़ की इस घटना को सदैव अभिशाप की बजाए वरदान ही माना क्योंकि अगर वह हीरोइन बनती है तो शायद कुछ ही फिल्में कर पाती लेकिन इसके चलते उन्होंने सैकड़ों चरित्र भूमिकाएं की। एस.एम. यूसुफ की फिल्म गृहस्थी में वे पहली बार चरित्र अभिनेत्री बनकर आईं । फिर तो उन्होंने कभी मुड़कर नहीं देखा। वी. शांताराम की दहेज में वे पृथ्वीराज कपूर के साथ आईं। दाग में दिलीप कुमार की मां, राज कपूर की फिल्म श्री 420 की केलेवाली और अनाड़ी की मिसेज डिसूजा, प्रोफेसर और मिस्टर एंड मिसेज 55 की कुंठित अविवाहिता ,परवरिश में राज कपूर और जंगली में शम्मी कपूर की मां के यादगार रोल कौन भूल सकता है। राजकपूर ने उन्हें अपनी कई फिल्मों में ममतामयी मां के रूप में प्रस्तुत किया । उनकी अंतिम फिल्म 1997 में आई भाई नामक फिल्म थी जिसमें वह पूजा बत्रा की दादी और ओमपुरी की मां बनी थीं।
चलते-चलते
जीवन के अंतिम समय में आर्थिक कारणों से वे पुणे में रहने लगी थीं । 23 फरवरी, 1998 को जब वे घर में अकेली थी तभी उनकी मौत हो गई। उनके पति फिल्म निर्माता रामप्रकाश गुप्ता गले के इलाज के लिए मुंबई गए थे। बेटा और बहू मुंबई में रहते थे। जब दो दिन के अखबार बाहर पड़े रहे और किसी ने नहीं उठाया तब पुलिस ने घर का दरवाजा तोड़कर उनकी लाश को बाहर निकाला। रामप्रकाश उनके दूसरे पति थे। पहला विवाह उन्होंने अपनी आरंभिक फिल्मों के निर्देशक जी.पी. पवार से तीस के दशक में किया था जो स्टंट फिल्मों के विशेषज्ञ थे।
(लेखक, कला एवं साहित्य विशेषज्ञ हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / मुकुंद
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