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300 साल पुराने तिरुपति प्रसाद की मिठास में कैसे आई कड़वाहट, 40 साल पहले भी हुआ था विवाद

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नई दिल्ली, 21 सितंबर . आंध्र प्रदेश के तिरुपति मंदिर के प्रसाद (लड्डू) में जानवरों की चर्बी और मछली के तेल का इस्तेमाल होने की बात सामने आने के बाद देशभर में सियासी हंगामा मचा हुआ है. इस मामले को लेकर हर कोई सवाल उठा रहा है. आरोप लग रहा है कि प्रसाद में मिलावट करके हिंदुओं की आस्था के साथ खिलवाड़ किया गया है. हालांकि, ये पहली बार नहीं है, जब तिरुपति मंदिर के प्रसाद ने विवाद को जन्म दिया है. करीब 40 साल पहले भी ऐसे ही सवाल उठे थे.

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, मंदिर के प्रसाद की क्वालिटी को लेकर पहली बार सवाल 80 के दशक में उठे थे. एक रिटायर्ड अफसर ने दावा किया था कि उन्होंने तिरुपति मंदिर से जो लड्डू लिए थे, उस प्रसाद में फफूंदी और कील निकली थी. अधिकारी के इन आरोपों के बाद मामले ने तूल पकड़ा और विवाद आंध्र प्रदेश विधानसभा तक पहुंच गया.

प्रसाद की क्वालिटी गिरने को लेकर सवाल उठाए गए और फिर इसकी जांच भी की गई. रिपोर्ट्स के अनुसार, इस संबंध में 1985 में एक रिपोर्ट भी सामने आई. इसके बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री एनटी रामाराव ने एक्शन लिया और कई कर्मचारियों को काम से निकाल दिया गया. साथ ही प्रसाद को बनाने में वैज्ञानिक तरीके के इस्तेमाल को मंजूरी दी गई थी.

हालांकि, नए विवाद ने 300 साल पुराने तिरुपति प्रसाद की मिठास में कड़वाहट ला दी है.

बता दें कि तिरुपति वेंकटेश्वर मंदिर आंध्र प्रदेश के तिरुपति जिले के पहाड़ी शहर तिरुमला में स्थित है. यह मंदिर भगवान विष्णु के एक रूप भगवान वेंकटेश्वर को समर्पित है. ऐसा माना जाता है कि वे मानव जाति को परेशानियों से बचाने के लिए पृथ्वी पर प्रकट हुए थे. इसलिए इस स्थान को कलियुग वैकुंठ भी कहा जाता है.

इस मंदिर को तिरुमाला मंदिर, तिरुपति मंदिर और तिरुपति बालाजी मंदिर जैसे अन्य नामों से भी पुकारा जाता है. इस मंदिर को तिरुमला तिरुपति देवस्थानम (टीटीडी) द्वारा चलाया जाता है, जो आंध्र प्रदेश सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है.

तिरुपति का इतिहास भी सदियों पुराना है, लेकिन इसे लेकर भी इतिहासकारों में काफी मतभेद देखने को मिलता है. कहा जाता है कि चोल, होयसल और विजयनगर के राजाओं ने इस मंदिर के निर्माण में खास योगदान दिया था. इस मंदिर के प्रसाद का इतिहास भी 300 साल पुराना बताया जाता है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, मंदिर में प्रसाद बनाने की प्रथा साल 1715 के आसपास शुरू हुई थी, जिन्हें साल 2014 में जाई टैग भी दिया गया.

एफएम/एफजेड

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