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गलत परंपरा

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किसी मामले में सुप्रीम कोर्ट की बेंच के बीच सहमति न बनना कोई असामान्य बात नहीं है, लेकिन अकोला सांप्रदायिक दंगों का केस जिस तरह से आगे बढ़ रहा है, वह असामान्य है। यह पहला मामला होगा जहां देश की शीर्ष अदालत की एक बेंच ने किसी जांच दल में धर्म के आधार पर अफसरों की तैनाती का आदेश दिया और अब उसकी समीक्षा के सवाल पर पर उसके जजों में एक राय नहीं है।

पुलिस की लापरवाही । 2023 के अकोला दंगे से जुड़े एक मामले में पुलिस ने एफआईआर दर्ज नहीं की तो अदालत का दरवाजा खटखटाया गया। 11 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने पाया कि पुलिस ने वाकई लापरवाही बरती है और आदेश दिया कि एक SIT का गठन किया जाए, जिसमें हिंदू और मुस्लिम - दोनों संप्रदायों के पुलिस अफसर हों।

बंटी राय । महाराष्ट्र सरकार ने इस आदेश को यह कहते हुए चुनौती दी कि पुलिस बल धर्मनिरपेक्ष संस्था है और धार्मिक आधार पर नियुक्ति से खतरनाक परंपरा स्थापित होगी। अहम बात यह है कि जिन दो न्यायाधीशों ने यह आदेश दिया था, वे भी पुनर्विचार याचिका पर एक दूसरे से असहमत हैं। एक न्यायाधीश ने पुनर्विचार याचिका को स्वीकार कर लिया, जबकि दूसरे ने इसे खारिज कर दिया।

तैनाती का आधार । पुनर्विचार याचिका को लेकर दोनों न्यायाधीशों के अपने तर्क हैं, लेकिन बड़ा सवाल मूल फैसले का है। SIT गठित करने का आदेश देते हुए सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी थी कि जब पुलिस अधिकारी वर्दी पहनते हैं, तो उन्हें अपने व्यक्तिगत और धार्मिक झुकावों व पूर्वाग्रहों को पीछे छोड़ देना चाहिए। यह बात सौ फीसदी सही है। लेकिन, फिर धार्मिक आधार पर तैनाती का आदेश देकर अदालत ने एक तरह से इसी भावना को तोड़ दिया। जब तैनाती का आधार धर्म होगा, तो यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि कार्यप्रणाली में उसका असर नहीं दिखेगा।

इरादा गलत नहीं । वैसे यह समझना भी जरूरी है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के इरादे को गलत नहीं कहा जा सकता। चूंकि दंगों से निपटने में पुलिस की भूमिका को अदालत ने सही नहीं पाया, इसीलिए जांच में पूर्ण निष्पक्षता सुनिश्चित करने के इरादे से यह फैसला दिया गया लगता है। लेकिन वजह चाहे जो भी हो, जांच दल में धर्म के आधार पर चयन एक गलत परंपरा की शुरुआत होगी। उम्मीद है कि शीर्ष अदालत इस मामले को सही अंजाम तक पहुंचाएगी।
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