जबलपुरः एमपी हाईकोर्ट ने राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय के खिलाफ सख्त रवैया अपनाया है। यूनिवर्सिटी को फटकार लगाते हुए एक बड़ा फैसला सुनाया है। इससे यूनिवर्सिटी के एक रिटायर्ड कर्मचारी को बड़ी राहत मिली है। उसकी याचिका पर सुनवाई कर कोर्ट ने आदेश जारी किया है। कोर्ट ने कहा कि 15 दिन के भीतर 50 हजार की राशि का भुगतान करे। साथ ही उसकी पेंशन प्रक्रिया तत्काल शुरू करे।
दरअसल, राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्विविद्यालय से एक कर्मचारी रिटायर्ड हुआ। तब यूनिवर्सिटी प्रशासन ने पहले तो उसे अपना कर्मचारी मानने से ही इनकार कर दिया। इतना ही नहीं उसकी पेंशन का लाभ देने से मना कर दिया। यहां तक कि कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के प्रमुख सचिव के आदेश को भी विवि प्रशासन ने दरकिनार कर दिया था। इसके खिलाफ पीड़ित ने याचिका लगाई।
हाई कोर्ट ने माना अनुचित रवैया
पीड़ित की याचिका पर सुनावाई करते हुए कोर्ट ने विश्वविद्यालय के रवैये को मनमाना और अनुचित करार दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि सरकारी वित्त पोषित संस्था को अपने ही कर्मचारी के साथ इस तरह का व्यवहार करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। जस्टिस विवेक जैन की एकलपीठ ने निर्देशित किया है कि वह याचिकाकर्ता को पेंशन का भुगतान करने का आदेश जारी करे।
क्या है पूरा मामला
याचिकाकर्ता डॉ एसबीएस भदौरिया की ओर से यह मामला दायर किया गया था। इसमें कहा गया था कि राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय ने एक आदेश जारी कर किया था। जिससे अधिकारियों को निर्देशित किया गया था कि याचिकाकर्ता से पेंशन संबंधित दस्तावेज नहीं लें। इसके अलावा विश्वविद्यालय ने याचिकाकर्ता को सेवानिवृत्त किये जाने के संबंध पारित आदेश को भी निरस्त कर दिया था। एकलपीठ ने सुनवाई के दौरान पाया कि विवाद राज्य सरकार द्वारा वित्त पोषित तीन विश्वविद्यालयों के बीच में है।
याचिकाकर्ता की नियुक्ति जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय में वर्ष 1988 में हुई थी। इसके बाद सरकार ने साल 2009 में राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय और नानाजी देशमुख पशु चिकित्सा विज्ञान विश्वविद्यालय की स्थापना की। इनकी स्थापना मध्य प्रदेश विधान मंडल के विभिन्न अधिनियमों के तहत हुई थी। इसके पहले राज्य के कृषि महाविद्यालय और पशु चिकित्सा महाविद्यालय जेएनकेवीवी के अधीन थे।
फंड मिलने वाली यूनिवर्सिटी का मामला
साल 2009 में जेएनकेविवि का विभाजन किया गया। इसके बाद तीन विश्वविद्यालय अस्तित्व में आए। याचिकाकर्ता की सेवाएं वर्ष 2010 में ही आरवीएसकेवीवी को सौंप दी। आरवीएसकेवीवी वर्ष 2012 में याचिकाकर्ता को मध्य प्रदेश राज्य पशुधन एवं कुक्कुट विकास निगम में प्रतिनियुक्ति की अनुमति दी थी। हाईकोर्ट ने इस संबंध में कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के प्रमुख सचिव के समक्ष अभ्यावेदन पेश करने निर्देश दिये थे। प्रमुख सचिव ने आरवीएसकेवीवी को निर्देश दिये थे कि याचिकाकर्ता को पेंशन का लाभ प्रदान किया जाये।
प्रमुख सचिव के आदेश अमान्य घोषित किया
आरवीएसकेवीवी प्रशासन ने इस आदेश को मानने से इनकार कर दिया। उनकी ओर से तर्क दिया गया कि राज्य सरकार का उपरोक्त आदेश अधिकार क्षेत्र से बाहर है। विश्वविद्यालय मध्य प्रदेश विधानमंडल द्वारा पारित अधिनियम के तहत स्थापित किया गया है। राज्य सरकार का हस्तक्षेप विश्वविद्यालय की स्वायत्तता का उल्लंघन माना और आदेश को अमान्य घोषित कर दिया।
हाई कोर्ट ने लगाई फटकार
हाई कोर्ट ने इस रवैये पर फटकार लगाते हुए इसे अनुचित बताया। एकलपीठ ने अपने आदेश में कहा है कि सरकारी निकायों के बीच मुकदमेबाजी केवल तभी अदालत में आनी चाहिए जब उसका समाधान सरकारी स्तर पर नहीं हो सके। विश्वविद्यालय का अस्तित्व सरकार पर निर्भर है। विश्वविद्यालय ने मनमाना और अनुचित आदेश जारी करते हुए सरकार की आलोचना की। एकलपीठ ने याचिका का निराकरण करते हुए उक्त आदेश जारी किये।
दरअसल, राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्विविद्यालय से एक कर्मचारी रिटायर्ड हुआ। तब यूनिवर्सिटी प्रशासन ने पहले तो उसे अपना कर्मचारी मानने से ही इनकार कर दिया। इतना ही नहीं उसकी पेंशन का लाभ देने से मना कर दिया। यहां तक कि कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के प्रमुख सचिव के आदेश को भी विवि प्रशासन ने दरकिनार कर दिया था। इसके खिलाफ पीड़ित ने याचिका लगाई।
हाई कोर्ट ने माना अनुचित रवैया
पीड़ित की याचिका पर सुनावाई करते हुए कोर्ट ने विश्वविद्यालय के रवैये को मनमाना और अनुचित करार दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि सरकारी वित्त पोषित संस्था को अपने ही कर्मचारी के साथ इस तरह का व्यवहार करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। जस्टिस विवेक जैन की एकलपीठ ने निर्देशित किया है कि वह याचिकाकर्ता को पेंशन का भुगतान करने का आदेश जारी करे।
क्या है पूरा मामला
याचिकाकर्ता डॉ एसबीएस भदौरिया की ओर से यह मामला दायर किया गया था। इसमें कहा गया था कि राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय ने एक आदेश जारी कर किया था। जिससे अधिकारियों को निर्देशित किया गया था कि याचिकाकर्ता से पेंशन संबंधित दस्तावेज नहीं लें। इसके अलावा विश्वविद्यालय ने याचिकाकर्ता को सेवानिवृत्त किये जाने के संबंध पारित आदेश को भी निरस्त कर दिया था। एकलपीठ ने सुनवाई के दौरान पाया कि विवाद राज्य सरकार द्वारा वित्त पोषित तीन विश्वविद्यालयों के बीच में है।
याचिकाकर्ता की नियुक्ति जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय में वर्ष 1988 में हुई थी। इसके बाद सरकार ने साल 2009 में राजमाता विजयाराजे सिंधिया कृषि विश्वविद्यालय और नानाजी देशमुख पशु चिकित्सा विज्ञान विश्वविद्यालय की स्थापना की। इनकी स्थापना मध्य प्रदेश विधान मंडल के विभिन्न अधिनियमों के तहत हुई थी। इसके पहले राज्य के कृषि महाविद्यालय और पशु चिकित्सा महाविद्यालय जेएनकेवीवी के अधीन थे।
फंड मिलने वाली यूनिवर्सिटी का मामला
साल 2009 में जेएनकेविवि का विभाजन किया गया। इसके बाद तीन विश्वविद्यालय अस्तित्व में आए। याचिकाकर्ता की सेवाएं वर्ष 2010 में ही आरवीएसकेवीवी को सौंप दी। आरवीएसकेवीवी वर्ष 2012 में याचिकाकर्ता को मध्य प्रदेश राज्य पशुधन एवं कुक्कुट विकास निगम में प्रतिनियुक्ति की अनुमति दी थी। हाईकोर्ट ने इस संबंध में कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के प्रमुख सचिव के समक्ष अभ्यावेदन पेश करने निर्देश दिये थे। प्रमुख सचिव ने आरवीएसकेवीवी को निर्देश दिये थे कि याचिकाकर्ता को पेंशन का लाभ प्रदान किया जाये।
प्रमुख सचिव के आदेश अमान्य घोषित किया
आरवीएसकेवीवी प्रशासन ने इस आदेश को मानने से इनकार कर दिया। उनकी ओर से तर्क दिया गया कि राज्य सरकार का उपरोक्त आदेश अधिकार क्षेत्र से बाहर है। विश्वविद्यालय मध्य प्रदेश विधानमंडल द्वारा पारित अधिनियम के तहत स्थापित किया गया है। राज्य सरकार का हस्तक्षेप विश्वविद्यालय की स्वायत्तता का उल्लंघन माना और आदेश को अमान्य घोषित कर दिया।
हाई कोर्ट ने लगाई फटकार
हाई कोर्ट ने इस रवैये पर फटकार लगाते हुए इसे अनुचित बताया। एकलपीठ ने अपने आदेश में कहा है कि सरकारी निकायों के बीच मुकदमेबाजी केवल तभी अदालत में आनी चाहिए जब उसका समाधान सरकारी स्तर पर नहीं हो सके। विश्वविद्यालय का अस्तित्व सरकार पर निर्भर है। विश्वविद्यालय ने मनमाना और अनुचित आदेश जारी करते हुए सरकार की आलोचना की। एकलपीठ ने याचिका का निराकरण करते हुए उक्त आदेश जारी किये।
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