लेखक: राजेश चौधरी
संविधान की प्रस्तावना में आपातकाल के दौरान जोड़े गए ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को लेकर एक बार फिर बहस तेज हो गई है। समय-समय पर इस मुद्दे को लेकर बहस होती रही है, लेकिन जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने आया तो फैसले के जरिए पिछले साल उसने इस बहस पर एक तरह से विराम लगा दिया। बावजूद इसके, पहले एक वरिष्ठ RSS नेता और उसके बाद उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के हालिया बयान के बाद बहस ने फिर तूल पकड़ ली है।
दक्षिणपंथ का तर्क: इसी 27 जून को RSS के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने कहा कि ‘बाबा साहेब आंबेडकर ने जो संविधान बनाया, उसकी प्रस्तावना में ये शब्द नहीं थे। आपातकाल के दौरान जब मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए और जब संसद काम नहीं कर रही थी तब इन दोनों शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ा गया। इसलिए ये शब्द प्रस्तावना में रहने चाहिए या नहीं, इस पर विचार हो।’ इसके एक दिन बाद उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा कि ‘संविधान की प्रस्तावना परिवर्तनशील नहीं है। फिर भी आपातकाल में इसे बदल दिया गया और यह संविधान बनाने वालों की बुद्धिमत्ता के साथ विश्वासघात का संकेत है। आपातकाल के दौरान प्रस्तावना में जो शब्द जोड़े गए वे नासूर थे।’
इंदिरा का पहलू: यह बात सही है कि संविधान की मूल प्रस्तावना में सेकुलर शब्द नहीं था। इसमें सेकुलर और सोशलिस्ट शब्द जोड़ने के लिए संविधान सभा में संशोधन प्रस्ताव पेश किया गया, जो खारिज हो गया। इसी रूप में संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू कर दिया गया। बाद में इंदिरा गांधी के शासनकाल में आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन के जरिये संविधान की प्रस्तावना में ये दोनों शब्द जोड़ दिए गए।
सुप्रीम कोर्ट में अर्जी: यह बहस तब सुप्रीम कोर्ट पहुंची, जब प्रस्तावना में इन शब्दों को डाले जाने के खिलाफ एक याचिका दायर की गई। इसमें कहा गया था, ‘चूंकि यह संविधान संशोधन इमरजेंसी के दौरान हुआ था, इसलिए लोगों को इस मामले में पक्ष रखने का मौका नहीं मिला। प्रस्तावना में संशोधन का अधिकार सिर्फ संविधान सभा को था।’ लेकिन 25 नवंबर 2024 को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस (तत्कालीन) संजीव खन्ना की अगुआई वाली बेंच ने याचिका खारिज कर दी। कोर्ट के मुताबिक, संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार है और प्रस्तावना में भी। अदालत ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है, इसे संविधान से अलग नहीं माना जा सकता है। कोर्ट के मुताबिक, यह नहीं कहा सकता कि इमरजेंसी के दौरान संसद ने जो किया, वह अमान्य था।
मूल ढांचे का हिस्सा: चीफ जस्टिस खन्ना ने स्पष्ट किया कि सोशलिस्ट और सेकुलर शब्द संविधान के उद्देश्यों के अनुरूप हैं। भारतीय संदर्भ में सोशलिस्ट शब्द का अर्थ वेलफेयर स्टेट यानी कल्याणकारी राज्य है। यानी भारत में समाजवाद का मतलब यह है कि राज्य (सरकार) लोगों का कल्याण सुनिश्चित करने और उन्हें समान अवसर प्रदान करने के लिए उत्तरदायी होगा।
बेसिक स्ट्रक्चर: सबसे बड़ी बात यह कि शीर्ष अदालत ने सेकुलर शब्द को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना। यह बात सुप्रीम कोर्ट एसआर बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस में भी कह चुका है कि संविधान की प्रस्तावना बेसिक स्ट्रक्चर का पार्ट है। ध्यान रहे, केशवानंद भारती केस में 1973 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संसद को संविधान संशोधन का अधिकार है लेकिन वह संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकती है।
धर्मनिरपेक्षता पर कोर्ट: सुप्रीम कोर्ट के तमाम फैसलों और संविधान को देखें तो भी स्पष्ट हो जाता है कि संविधान की भावना और प्रारूप सेकुलर ही है। ऐसे में इस शब्द को संविधान संशोधन के जरिये भी हटाया गया तो यह जुडिशल स्क्रूटनी में शायद ही टिक पाए। शीर्ष अदालत ने कई बार अपने फैसलों में कहा है कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान के मूल ढांचे का हमेशा से हिस्सा रही है और आज भी है। अगर आप समानता के अधिकार को देखते हैं तो वहां भी भाईचारे और बंधुत्व का इस्तेमाल किया गया है यह साफ तौर पर संदेश देता है कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान का बुनियादी तत्व है।
न्यायिक समीक्षा: यहां इस बात को समझना होगा कि अगर सेकुलर और समाजवाद शब्द को प्रस्तावना से हटाने की कोई कोशिश होती है तो उस फैसले का जुडिशल रिव्यू तय है और सुप्रीम कोर्ट पिछले साल ही नहीं, उससे काफी पहले बोम्मई जजमेंट में कह चुका है कि सेकुलर और सोशलिस्ट शब्द संविधान की प्रस्तावना का अभिन्न अंग हैं। ऐसे में इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का रुख क्या होगा यह बताने की जरूरत नहीं है।
संविधान की प्रस्तावना में आपातकाल के दौरान जोड़े गए ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों को लेकर एक बार फिर बहस तेज हो गई है। समय-समय पर इस मुद्दे को लेकर बहस होती रही है, लेकिन जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने आया तो फैसले के जरिए पिछले साल उसने इस बहस पर एक तरह से विराम लगा दिया। बावजूद इसके, पहले एक वरिष्ठ RSS नेता और उसके बाद उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के हालिया बयान के बाद बहस ने फिर तूल पकड़ ली है।
दक्षिणपंथ का तर्क: इसी 27 जून को RSS के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने कहा कि ‘बाबा साहेब आंबेडकर ने जो संविधान बनाया, उसकी प्रस्तावना में ये शब्द नहीं थे। आपातकाल के दौरान जब मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए और जब संसद काम नहीं कर रही थी तब इन दोनों शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ा गया। इसलिए ये शब्द प्रस्तावना में रहने चाहिए या नहीं, इस पर विचार हो।’ इसके एक दिन बाद उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा कि ‘संविधान की प्रस्तावना परिवर्तनशील नहीं है। फिर भी आपातकाल में इसे बदल दिया गया और यह संविधान बनाने वालों की बुद्धिमत्ता के साथ विश्वासघात का संकेत है। आपातकाल के दौरान प्रस्तावना में जो शब्द जोड़े गए वे नासूर थे।’
इंदिरा का पहलू: यह बात सही है कि संविधान की मूल प्रस्तावना में सेकुलर शब्द नहीं था। इसमें सेकुलर और सोशलिस्ट शब्द जोड़ने के लिए संविधान सभा में संशोधन प्रस्ताव पेश किया गया, जो खारिज हो गया। इसी रूप में संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू कर दिया गया। बाद में इंदिरा गांधी के शासनकाल में आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन के जरिये संविधान की प्रस्तावना में ये दोनों शब्द जोड़ दिए गए।
सुप्रीम कोर्ट में अर्जी: यह बहस तब सुप्रीम कोर्ट पहुंची, जब प्रस्तावना में इन शब्दों को डाले जाने के खिलाफ एक याचिका दायर की गई। इसमें कहा गया था, ‘चूंकि यह संविधान संशोधन इमरजेंसी के दौरान हुआ था, इसलिए लोगों को इस मामले में पक्ष रखने का मौका नहीं मिला। प्रस्तावना में संशोधन का अधिकार सिर्फ संविधान सभा को था।’ लेकिन 25 नवंबर 2024 को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस (तत्कालीन) संजीव खन्ना की अगुआई वाली बेंच ने याचिका खारिज कर दी। कोर्ट के मुताबिक, संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार है और प्रस्तावना में भी। अदालत ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है, इसे संविधान से अलग नहीं माना जा सकता है। कोर्ट के मुताबिक, यह नहीं कहा सकता कि इमरजेंसी के दौरान संसद ने जो किया, वह अमान्य था।
मूल ढांचे का हिस्सा: चीफ जस्टिस खन्ना ने स्पष्ट किया कि सोशलिस्ट और सेकुलर शब्द संविधान के उद्देश्यों के अनुरूप हैं। भारतीय संदर्भ में सोशलिस्ट शब्द का अर्थ वेलफेयर स्टेट यानी कल्याणकारी राज्य है। यानी भारत में समाजवाद का मतलब यह है कि राज्य (सरकार) लोगों का कल्याण सुनिश्चित करने और उन्हें समान अवसर प्रदान करने के लिए उत्तरदायी होगा।
बेसिक स्ट्रक्चर: सबसे बड़ी बात यह कि शीर्ष अदालत ने सेकुलर शब्द को संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना। यह बात सुप्रीम कोर्ट एसआर बोम्मई बनाम यूनियन ऑफ इंडिया केस में भी कह चुका है कि संविधान की प्रस्तावना बेसिक स्ट्रक्चर का पार्ट है। ध्यान रहे, केशवानंद भारती केस में 1973 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि संसद को संविधान संशोधन का अधिकार है लेकिन वह संविधान के बेसिक स्ट्रक्चर के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकती है।
धर्मनिरपेक्षता पर कोर्ट: सुप्रीम कोर्ट के तमाम फैसलों और संविधान को देखें तो भी स्पष्ट हो जाता है कि संविधान की भावना और प्रारूप सेकुलर ही है। ऐसे में इस शब्द को संविधान संशोधन के जरिये भी हटाया गया तो यह जुडिशल स्क्रूटनी में शायद ही टिक पाए। शीर्ष अदालत ने कई बार अपने फैसलों में कहा है कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान के मूल ढांचे का हमेशा से हिस्सा रही है और आज भी है। अगर आप समानता के अधिकार को देखते हैं तो वहां भी भाईचारे और बंधुत्व का इस्तेमाल किया गया है यह साफ तौर पर संदेश देता है कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान का बुनियादी तत्व है।
न्यायिक समीक्षा: यहां इस बात को समझना होगा कि अगर सेकुलर और समाजवाद शब्द को प्रस्तावना से हटाने की कोई कोशिश होती है तो उस फैसले का जुडिशल रिव्यू तय है और सुप्रीम कोर्ट पिछले साल ही नहीं, उससे काफी पहले बोम्मई जजमेंट में कह चुका है कि सेकुलर और सोशलिस्ट शब्द संविधान की प्रस्तावना का अभिन्न अंग हैं। ऐसे में इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का रुख क्या होगा यह बताने की जरूरत नहीं है।
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