हमारे सिनेमा का उदय गानों के साथ हुआ क्योंकि गाने हमारे समाज में हैं। शादी हो या मुंडन गाने तो होते ही हैं, हमारे यहां तो धान रोपने में भी गाने गाए जाते हैं। समाज में गाने थे, इसलिए फिल्मों में भी आए, इसलिए यह तुलना बेमानी है। ठीक उसी तरह वैश्विक सम्मान को भी पैमाना नहीं बनाना चाहिए
दो बार राष्ट्रीय पुरस्कारों समेत कई सम्मानों से नवाजे जा चुके पंकज त्रिपाठी के किरदारों से ही नहीं बल्कि शख्सियत से भी अपनी मिट्टी की खुशबू आती है। NSD की पौध पंकज OTT को संजीवनी बूटी मानते हैं। उनसे फिल्म, संघर्ष, कला और साहित्य पर बात की NBT की रेखा खान ने। पेश हैं अहम अंश :
- करियर के आरंभिक दिनों में आपने नकारे जाने का दर्द भी सहा और छोटी-छोटी भूमिकाएं भी कीं, मगर आज आप शीर्ष पर हैं, कैसा महसूस करते हैं?
मैं सफलता में अति उत्साही नहीं होता, उसी तरह असफलता मुझे हतोत्साहित नहीं करती। मुझे याद नहीं कि कोई बहुत पीड़ादायक या कॉन्फ्लिक्ट का दौर चला हो। असल में पत्नी टीचर थीं और हमारी जरूरतें सीमित थीं। सर्वाइवल का कोई संकट नहीं था। संघर्ष का यह दौर 9-10 साल चला। तब सोशल मीडिया और इंटरनेट नहीं था तो मैं ज्ञान खोजता रहता था। मैं तब साहित्य और दर्शन की किताबें पढ़ता था। दो अखबार पढ़ता था, जिसमें से एक आपका NBT है और मेरा पसंदीदा पेज संपादकीय हुआ करता था। पढ़कर खुशी मिलती थी।
- छोटी-मोटी भूमिकाओं से लेकर हीरो के समकक्ष वाले किरदारों तक आपके लिए ट्रांसफॉर्मेशन का दौर कैसा रहा?
ट्रांसफॉर्मेशन के दौर में हमारे लिए तकनीक ने बहुत बड़ा काम किया। मैं OTT के शुरुआती दौर का हूं, चाहे वह मिर्जापुर हो या क्रिमिनल जस्टिस या सेक्रेड गेम्स। यह मेरे लिए संजीवनी बूटी साबित हुआ। लोगों के हाथ में मोबाइल और लैपटॉप का होना और सोशल मीडिया की लहर दौड़ना। लोग मेरा काम देखकर सोशल मीडिया पर लिखने लगे कि ये एक्टर अच्छा काम करता है। फिर मीडिया मुझे खोजने लगी। वरना मैं जिस तरह का अभिनय करता हूं, वह लोगों की समझ में नहीं आता। मैं समझ सकता हूं कि इरफान खान को कितनी समस्या होती होगी। किसी इमोशन को उतना लाउड नहीं दिखाना है।
- वर्ल्ड सिनेमा की बात करें तो रेस में हम किस पायदान पर हैं?
सिनेमा की रेस में मेरे लिए पायदान अर्थ नहीं रखता क्योंकि उनका कल्चर, उनका रियलिज्म अलग है। हमारी स्टोरी टेलिंग अलग है क्योंकि हमारा समाज और संस्कृति अलग है। तुलना मत कीजिए, आर्ट की तुलना नहीं हो सकती। हमारे सिनेमा का उदय गानों के साथ हुआ क्योंकि गाने हमारे समाज में हैं। शादी हो या मुंडन, यहां तो धान रोपने में भी गाने गाए जाते हैं। समाज में गाने थे, इसलिए फिल्मों में भी आए, इसलिए यह तुलना बेमानी है। ठीक उसी तरह वैश्विक सम्मान को भी पैमाना नहीं बनाना चाहिए कि अगर हमें सम्मान नहीं मिला, तो हम अच्छा काम नहीं कर रहे।
- तो कहीं आप इसका कारण कहानियों को भी मानते हैं? साहित्य में उपन्यासों और कहानियों की भरमार होने के बावजूद हम विदेशों की तरह इन पर फिल्में नहीं बनाते?
वह तो है ही। हमारी कहानियां अब रूटेड नहीं रहीं। हमारी कहानियां कल्चर से पैदा होती थीं, मगर अब उसने अपनी जड़ें छोड़ दी हैं शायद। साहित्य से पहले इक्का-दुक्का फिल्में बन जाती थीं। जैसे फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियों पर तीसरी कसम और पंचलैट। बीच के दौर में जो फिल्ममेकर हुए, उनका हिंदी लिटरेचर से कोई नाता नहीं था। जो पढ़ेंगे नहीं, वह कहानी कहां से लाएंगे? मगर अब फिर चलन हुआ है अपनी जड़ों की तरफ लौटने का। वेब सीरीज पंचायत चल पड़ा है। OTT में कई लेखक जामिया से मास मीडिया, IIT या अपने इलाके से पढ़कर आए हैं। अब अब बदलाव दिख रहा है और ये परिवर्तन पहले OTT पर आया है।
- NSD का आपके अभिनय करियर में कितना योगदान रहा?
वहां जाकर ही समझ आया कि आर्ट की दुनिया कितनी बड़ी है और जीवन के अनुभव कितने बहुमूल्य हो सकते हैं। हमें वहां अनुराधा मैम विंडो इमेज पढ़ाती थीं। वह हमेशा कहती थीं कि अपनी विंडो क्रिएट करो। हम दो-तीन मिलकर एक क्रिएट करते थे, अपने अनुभवों के आधार पर, मगर वे बार-बार उसे ठीक करवाती थीं। कहती थीं, इसमें कुछ यूनीक नहीं है। अपनी खिड़की को खोजते-खोजते हम इस बात पर आते थे कि एक आईना लटका हुआ है और उसके लटकते फ्रेम पर एक बिंदी चिपकी हुई है। वरना उससे पहले तो हम सिनेमा वाला विंडो क्रिएट करते कि एक खूबसूरत लड़की खिड़की पर आकर खड़ी हो गई है।
- आपकी वेब सीरीज क्रिमिनल जस्टिस में आप एक ईमानदार वकील बने हैं। असल जिंदगी में हमने देखा है कि कई बार न्याय प्रणाली में देरी हो जाती है या सवाल उठ खड़े होते हैं?
वह बहुत कॉम्प्लिकेटेड है क्योंकि उसके कई कारण हैं। एक तो है, हमारी जनसंख्या। अदालतों में जितने केस लंबित हैं, दूसरे केस का नंबर आने में ही वक्त लग जाता है। जांच-परख में भी समय लगता है, क्योंकि हमारी न्याय प्रणाली कहती है कि भले एक दोषी मुक्त हो जाए, मगर निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए।
- इन दिनों इंडस्ट्री में 8 घंटे की शिफ्ट को लेकर बहस चल रही है।
जो 8 घंटे की शिफ्ट बनी है, वह ग्लोबली है। 24 घंटों को हमने 3 भागों में डिवाइड किया है। 8 घंटे काम, 8 घंटे सोना कर 8 घंटे आपका पारिवारिक जीवन, सेल्फ केयर और सामाजिक दायित्व। पहले ऐसा होता भी था। ज्यादा काम को ओवरटाइम कहा जाता था। मगर हमारी इंडस्ट्री में 12 घंटे की शिफ्ट कंपल्सरी जैसी है और फिर ट्रेवलिंग का समय अलग से। मैंने खुद महसूस किया है कि मैं जब लगातार शूटिंग करता हूं, तो मेरी नींद पूरी नहीं होती, जिसका असर मेरे अभिनय पर पड़ता है। फिल्म सेट पर एक अभिनेता ही ऐसा होता है, जिसके पास कोई यंत्र या बटन नहीं होता कि स्विच ऑफ कर सके। सिर्फ हम अभिनेता ही इमोशनल लेबर करते हैं। अभिनेता तभी अच्छा परफॉर्म कर सकता है, जब उसे प्रॉपर आराम मिले। बात 8 या 12 घंटे की नहीं है, बात एक्टर के काम की है।
दो बार राष्ट्रीय पुरस्कारों समेत कई सम्मानों से नवाजे जा चुके पंकज त्रिपाठी के किरदारों से ही नहीं बल्कि शख्सियत से भी अपनी मिट्टी की खुशबू आती है। NSD की पौध पंकज OTT को संजीवनी बूटी मानते हैं। उनसे फिल्म, संघर्ष, कला और साहित्य पर बात की NBT की रेखा खान ने। पेश हैं अहम अंश :
- करियर के आरंभिक दिनों में आपने नकारे जाने का दर्द भी सहा और छोटी-छोटी भूमिकाएं भी कीं, मगर आज आप शीर्ष पर हैं, कैसा महसूस करते हैं?
मैं सफलता में अति उत्साही नहीं होता, उसी तरह असफलता मुझे हतोत्साहित नहीं करती। मुझे याद नहीं कि कोई बहुत पीड़ादायक या कॉन्फ्लिक्ट का दौर चला हो। असल में पत्नी टीचर थीं और हमारी जरूरतें सीमित थीं। सर्वाइवल का कोई संकट नहीं था। संघर्ष का यह दौर 9-10 साल चला। तब सोशल मीडिया और इंटरनेट नहीं था तो मैं ज्ञान खोजता रहता था। मैं तब साहित्य और दर्शन की किताबें पढ़ता था। दो अखबार पढ़ता था, जिसमें से एक आपका NBT है और मेरा पसंदीदा पेज संपादकीय हुआ करता था। पढ़कर खुशी मिलती थी।
- छोटी-मोटी भूमिकाओं से लेकर हीरो के समकक्ष वाले किरदारों तक आपके लिए ट्रांसफॉर्मेशन का दौर कैसा रहा?
ट्रांसफॉर्मेशन के दौर में हमारे लिए तकनीक ने बहुत बड़ा काम किया। मैं OTT के शुरुआती दौर का हूं, चाहे वह मिर्जापुर हो या क्रिमिनल जस्टिस या सेक्रेड गेम्स। यह मेरे लिए संजीवनी बूटी साबित हुआ। लोगों के हाथ में मोबाइल और लैपटॉप का होना और सोशल मीडिया की लहर दौड़ना। लोग मेरा काम देखकर सोशल मीडिया पर लिखने लगे कि ये एक्टर अच्छा काम करता है। फिर मीडिया मुझे खोजने लगी। वरना मैं जिस तरह का अभिनय करता हूं, वह लोगों की समझ में नहीं आता। मैं समझ सकता हूं कि इरफान खान को कितनी समस्या होती होगी। किसी इमोशन को उतना लाउड नहीं दिखाना है।
- वर्ल्ड सिनेमा की बात करें तो रेस में हम किस पायदान पर हैं?
सिनेमा की रेस में मेरे लिए पायदान अर्थ नहीं रखता क्योंकि उनका कल्चर, उनका रियलिज्म अलग है। हमारी स्टोरी टेलिंग अलग है क्योंकि हमारा समाज और संस्कृति अलग है। तुलना मत कीजिए, आर्ट की तुलना नहीं हो सकती। हमारे सिनेमा का उदय गानों के साथ हुआ क्योंकि गाने हमारे समाज में हैं। शादी हो या मुंडन, यहां तो धान रोपने में भी गाने गाए जाते हैं। समाज में गाने थे, इसलिए फिल्मों में भी आए, इसलिए यह तुलना बेमानी है। ठीक उसी तरह वैश्विक सम्मान को भी पैमाना नहीं बनाना चाहिए कि अगर हमें सम्मान नहीं मिला, तो हम अच्छा काम नहीं कर रहे।
- तो कहीं आप इसका कारण कहानियों को भी मानते हैं? साहित्य में उपन्यासों और कहानियों की भरमार होने के बावजूद हम विदेशों की तरह इन पर फिल्में नहीं बनाते?
वह तो है ही। हमारी कहानियां अब रूटेड नहीं रहीं। हमारी कहानियां कल्चर से पैदा होती थीं, मगर अब उसने अपनी जड़ें छोड़ दी हैं शायद। साहित्य से पहले इक्का-दुक्का फिल्में बन जाती थीं। जैसे फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियों पर तीसरी कसम और पंचलैट। बीच के दौर में जो फिल्ममेकर हुए, उनका हिंदी लिटरेचर से कोई नाता नहीं था। जो पढ़ेंगे नहीं, वह कहानी कहां से लाएंगे? मगर अब फिर चलन हुआ है अपनी जड़ों की तरफ लौटने का। वेब सीरीज पंचायत चल पड़ा है। OTT में कई लेखक जामिया से मास मीडिया, IIT या अपने इलाके से पढ़कर आए हैं। अब अब बदलाव दिख रहा है और ये परिवर्तन पहले OTT पर आया है।
- NSD का आपके अभिनय करियर में कितना योगदान रहा?
वहां जाकर ही समझ आया कि आर्ट की दुनिया कितनी बड़ी है और जीवन के अनुभव कितने बहुमूल्य हो सकते हैं। हमें वहां अनुराधा मैम विंडो इमेज पढ़ाती थीं। वह हमेशा कहती थीं कि अपनी विंडो क्रिएट करो। हम दो-तीन मिलकर एक क्रिएट करते थे, अपने अनुभवों के आधार पर, मगर वे बार-बार उसे ठीक करवाती थीं। कहती थीं, इसमें कुछ यूनीक नहीं है। अपनी खिड़की को खोजते-खोजते हम इस बात पर आते थे कि एक आईना लटका हुआ है और उसके लटकते फ्रेम पर एक बिंदी चिपकी हुई है। वरना उससे पहले तो हम सिनेमा वाला विंडो क्रिएट करते कि एक खूबसूरत लड़की खिड़की पर आकर खड़ी हो गई है।
- आपकी वेब सीरीज क्रिमिनल जस्टिस में आप एक ईमानदार वकील बने हैं। असल जिंदगी में हमने देखा है कि कई बार न्याय प्रणाली में देरी हो जाती है या सवाल उठ खड़े होते हैं?
वह बहुत कॉम्प्लिकेटेड है क्योंकि उसके कई कारण हैं। एक तो है, हमारी जनसंख्या। अदालतों में जितने केस लंबित हैं, दूसरे केस का नंबर आने में ही वक्त लग जाता है। जांच-परख में भी समय लगता है, क्योंकि हमारी न्याय प्रणाली कहती है कि भले एक दोषी मुक्त हो जाए, मगर निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए।
- इन दिनों इंडस्ट्री में 8 घंटे की शिफ्ट को लेकर बहस चल रही है।
जो 8 घंटे की शिफ्ट बनी है, वह ग्लोबली है। 24 घंटों को हमने 3 भागों में डिवाइड किया है। 8 घंटे काम, 8 घंटे सोना कर 8 घंटे आपका पारिवारिक जीवन, सेल्फ केयर और सामाजिक दायित्व। पहले ऐसा होता भी था। ज्यादा काम को ओवरटाइम कहा जाता था। मगर हमारी इंडस्ट्री में 12 घंटे की शिफ्ट कंपल्सरी जैसी है और फिर ट्रेवलिंग का समय अलग से। मैंने खुद महसूस किया है कि मैं जब लगातार शूटिंग करता हूं, तो मेरी नींद पूरी नहीं होती, जिसका असर मेरे अभिनय पर पड़ता है। फिल्म सेट पर एक अभिनेता ही ऐसा होता है, जिसके पास कोई यंत्र या बटन नहीं होता कि स्विच ऑफ कर सके। सिर्फ हम अभिनेता ही इमोशनल लेबर करते हैं। अभिनेता तभी अच्छा परफॉर्म कर सकता है, जब उसे प्रॉपर आराम मिले। बात 8 या 12 घंटे की नहीं है, बात एक्टर के काम की है।
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