पटना: बिहार में पहले चरण के विधानसभा चुनाव में 121 सीटों पर करीब 64.46 प्रतिशत मतदान हुआ। पहले चरण में शामिल 18 जिलों की इन सीटों पर सन 2005 में करीब 46 प्रतिशत, 2010 में 52.6 प्रतिशत, 2015 में 56.8 प्रतिशत और 2020 में 57 प्रतिशत मतदान हुआ था। बिहार में इस बार पहले चरण के मतदान ने पिछले 20 सालों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। इससे अनुमान लगाया जा रहा है कि दूसरे चरण में भी मतदान पिछले चुनाव से ज्यादा हो सकता है। वोटिंग का बढ़ना किस ओर इशारा करता है? यह मौजूदा सरकार के पक्ष में है या उसके खिलाफ है? आम तौर पर माना जाता है कि मत प्रतिशत का बढ़ना मौजूदा सरकार के खिलाफ होता है, लेकिन यह भी सच है कि ऐसा हमेशा नहीं होता।
बिहार में पहले चरण में कुल 1314 उम्मीदवार हैं और मुख्य मुकाबला एनडीए और महागठबंधन के बीच है। बिहार के पिछले विधानसभा चुनावों के पहले चरण के वोटिंग के आंकड़ों पर नजर डालें तो यह कुछ हद तक यह संकेत मिलते हैं कि इस बार मतदाता बदलाव चाहता है। सन 2020 में पहले चरण की 121 सीटों में से आरजेडी 42 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। बीजेपी ने 32 सीटें जीती थीं जबकि जेडीयू के खाते में 23 सीटें आई थीं।
2015 की तुलना में 2020 में बढ़ा था मतदानबिहार के 2020 के चुनाव में पहले चरण की 121 सीटों में से आरजेडी 42 सीटों पर विजयी हुई थी। बीजेपी को 32 सीटें मिली थीं। जेडीयू को 23, वामपंथी दलों को 11, कांग्रेस को 8 और अन्य उम्मीदवारों को 5 सीटें मिली थीं। मतदान 2015 के चुनाव की तुलना में करीब 2 प्रतिशत ज्यादा हुआ था। सन 2015 के चुनाव में पहले चरण की सीटों में आरजेडी को 46 सीटों और जेडीयू को 41 सीटों पर विजय मिली थी। बीजेपी को 20 सीटें और कांग्रेस को 8 सीटों पर जीत मिली थी।
बिहार के 2010 के विधानसभा चुनाव के पहले चरण में जेडीयू ने 59 सीटें जीती थीं। बीजेपी को 46 सीटें और आरजेडी को 15 सीटें मिली थीं। पहले चरण की सीटों में कांग्रेस का खाता ही नहीं खुल सका था। यानी वह एक भी सीट नहीं जीत सकी थी।
बहुमत से कुछ दूर रह गया था विपक्षपिछले विधानसभा चुनाव अक्टूबर-नवंबर 2020 में हुए थे। चुनाव के बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने राज्य में सरकार बनाई थी और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने थे। बाद में अगस्त 2022 में नीतीश कुमार ने जेडीयू का एनडीए से गठबंधन तोड़कर राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के नेतृत्व वाले महागठबंधन के साथ सरकार बना ली थी। इसके बाद जनवरी 2024 में नीतीश कुमार ने फिर से आरजेडी से गठबंधन तोड़कर बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए के साथ मिलकर सरकार बना ली थी।
साल 2020 के चुनाव में राज्य की कुल 243 सीटों में से आरजेडी को 75 सीटें और 23.1 प्रतिशत वोट मिले थे। जेडीयू को 43 सीटें और 15.3 फीसदी वोट मिले थे। बीजेपी को 74 सीटें और 19.4 प्रतिशत वोट, कांग्रेस को 19 सीटें और 9.4 फीसदी वोट मिले थे। अन्य उम्मीदवारों को 32 सीटें और 32.5 प्रतिशत वोट मिले थे। बिहार में गठबंधनों के आंकड़ों को देखें तो 2020 में एनडीए को 122 और महागठबंधन को 114 सीटें मिली थीं। साल 2015 में एनडीए को 129 और महागठबंधन को 110 सीटें मिली थीं।
मतदान का बढ़ना क्या सत्ताधारी दल का विरोध?आम तौर पर माना जाता है कि जब चुनाव में मतदान बढ़ जाए तो यह सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ होता है। माना जाता है कि ज्यादा वोटिंग का मतलब एंटी इन्कम्बेंसी फैक्टर हावी है यानि सत्ता में मौजूदा पार्टी से नाराजगी के कारण ज्यादा वोट डाले गए हैं। सिर्फ एक-दो प्रतिशत वोटों का अंतर भी नजीजे बदल सकता है। हालांकि बीते कुछ सालों में देखा गया है कि एंटी इन्कम्बेंसी से अधिक प्रो-इन्कम्बेंसी के कारण मतदान में वृद्धि हुई। सवाल यह उठता है कि लोग मतदान नाराजगी के कारण (निगेटिव वोटिंग) कर रहे हैं या सरकार को समर्थन देने के लिए कर रहे हैं।
कम मतदान का अर्थ यह भी होता है कि, मतदाता उदासीन है और वह स्थतियों में बदलाव का इच्छुक नहीं होता है, जबकि ज्यादा वोटिंग का मतलब बदलाव की चाहत है। कई बार मिलाजुला रुझान भी देखने में आता है। हिमाचल प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में वोट प्रतिशत बढ़ा था और सरकार बदल गई थी। बिहार के पड़ोसी राज्य झारखंड में सन 2019 में 2014 की तुलना में जिन 17 सीटों पर वोटिंग का प्रतिशत बढ़ा था, उनमें से 12 सीटों पर तत्कालीन विजयी दलों को हार का सामना करना पड़ा था।
मतदाताओं का रुख समझना आसान नहीं
विशेषज्ञ मानते हैं कि कम या अधिक मतदान का सत्ता के विरोध या समर्थन से कोई संबंध नहीं होता। हालांकि यदि अंतर 6 से 7 फीसदी का हो तो इसे मतदाताओं की प्रतिक्रिया से जोड़कर देखा जा सकता है। यह आम तौर पर तब देखा जाता है जब कोई सत्ता विरोधी लहर हो या फिर किसी के पक्ष में जनता की सहानुभूति हो।
बिहार में वोटर लिस्ट से हटाए गए लाखों मतदाता बिहार में इस बार मतदान बढ़ने को सिर्फ सत्ता के विरोध, या सत्ता के समर्थन से इसलिए भी नहीं जोड़ा जा सकता क्योंकि राज्य में वोटर लिस्ट के स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (एसआईआर) के तहत मतदाताओं की संख्या में कम आई है। वोटर पिछले चुनाव के मुकाबले कम होने से भी मतदान प्रतिशत बढ़ा हुआ दिख सकता है। एसआईआर के तहत बिहार की अंतिम मतदाता सूची में से करीब 65 लाख वोटरों के नाम हटा दिए गए हैं।
बिहार में पहले चरण में कुल 1314 उम्मीदवार हैं और मुख्य मुकाबला एनडीए और महागठबंधन के बीच है। बिहार के पिछले विधानसभा चुनावों के पहले चरण के वोटिंग के आंकड़ों पर नजर डालें तो यह कुछ हद तक यह संकेत मिलते हैं कि इस बार मतदाता बदलाव चाहता है। सन 2020 में पहले चरण की 121 सीटों में से आरजेडी 42 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। बीजेपी ने 32 सीटें जीती थीं जबकि जेडीयू के खाते में 23 सीटें आई थीं।
2015 की तुलना में 2020 में बढ़ा था मतदानबिहार के 2020 के चुनाव में पहले चरण की 121 सीटों में से आरजेडी 42 सीटों पर विजयी हुई थी। बीजेपी को 32 सीटें मिली थीं। जेडीयू को 23, वामपंथी दलों को 11, कांग्रेस को 8 और अन्य उम्मीदवारों को 5 सीटें मिली थीं। मतदान 2015 के चुनाव की तुलना में करीब 2 प्रतिशत ज्यादा हुआ था। सन 2015 के चुनाव में पहले चरण की सीटों में आरजेडी को 46 सीटों और जेडीयू को 41 सीटों पर विजय मिली थी। बीजेपी को 20 सीटें और कांग्रेस को 8 सीटों पर जीत मिली थी।
बिहार के 2010 के विधानसभा चुनाव के पहले चरण में जेडीयू ने 59 सीटें जीती थीं। बीजेपी को 46 सीटें और आरजेडी को 15 सीटें मिली थीं। पहले चरण की सीटों में कांग्रेस का खाता ही नहीं खुल सका था। यानी वह एक भी सीट नहीं जीत सकी थी।
बहुमत से कुछ दूर रह गया था विपक्षपिछले विधानसभा चुनाव अक्टूबर-नवंबर 2020 में हुए थे। चुनाव के बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने राज्य में सरकार बनाई थी और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने थे। बाद में अगस्त 2022 में नीतीश कुमार ने जेडीयू का एनडीए से गठबंधन तोड़कर राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के नेतृत्व वाले महागठबंधन के साथ सरकार बना ली थी। इसके बाद जनवरी 2024 में नीतीश कुमार ने फिर से आरजेडी से गठबंधन तोड़कर बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए के साथ मिलकर सरकार बना ली थी।
साल 2020 के चुनाव में राज्य की कुल 243 सीटों में से आरजेडी को 75 सीटें और 23.1 प्रतिशत वोट मिले थे। जेडीयू को 43 सीटें और 15.3 फीसदी वोट मिले थे। बीजेपी को 74 सीटें और 19.4 प्रतिशत वोट, कांग्रेस को 19 सीटें और 9.4 फीसदी वोट मिले थे। अन्य उम्मीदवारों को 32 सीटें और 32.5 प्रतिशत वोट मिले थे। बिहार में गठबंधनों के आंकड़ों को देखें तो 2020 में एनडीए को 122 और महागठबंधन को 114 सीटें मिली थीं। साल 2015 में एनडीए को 129 और महागठबंधन को 110 सीटें मिली थीं।
मतदान का बढ़ना क्या सत्ताधारी दल का विरोध?आम तौर पर माना जाता है कि जब चुनाव में मतदान बढ़ जाए तो यह सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ होता है। माना जाता है कि ज्यादा वोटिंग का मतलब एंटी इन्कम्बेंसी फैक्टर हावी है यानि सत्ता में मौजूदा पार्टी से नाराजगी के कारण ज्यादा वोट डाले गए हैं। सिर्फ एक-दो प्रतिशत वोटों का अंतर भी नजीजे बदल सकता है। हालांकि बीते कुछ सालों में देखा गया है कि एंटी इन्कम्बेंसी से अधिक प्रो-इन्कम्बेंसी के कारण मतदान में वृद्धि हुई। सवाल यह उठता है कि लोग मतदान नाराजगी के कारण (निगेटिव वोटिंग) कर रहे हैं या सरकार को समर्थन देने के लिए कर रहे हैं।
कम मतदान का अर्थ यह भी होता है कि, मतदाता उदासीन है और वह स्थतियों में बदलाव का इच्छुक नहीं होता है, जबकि ज्यादा वोटिंग का मतलब बदलाव की चाहत है। कई बार मिलाजुला रुझान भी देखने में आता है। हिमाचल प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में वोट प्रतिशत बढ़ा था और सरकार बदल गई थी। बिहार के पड़ोसी राज्य झारखंड में सन 2019 में 2014 की तुलना में जिन 17 सीटों पर वोटिंग का प्रतिशत बढ़ा था, उनमें से 12 सीटों पर तत्कालीन विजयी दलों को हार का सामना करना पड़ा था।
मतदाताओं का रुख समझना आसान नहीं
विशेषज्ञ मानते हैं कि कम या अधिक मतदान का सत्ता के विरोध या समर्थन से कोई संबंध नहीं होता। हालांकि यदि अंतर 6 से 7 फीसदी का हो तो इसे मतदाताओं की प्रतिक्रिया से जोड़कर देखा जा सकता है। यह आम तौर पर तब देखा जाता है जब कोई सत्ता विरोधी लहर हो या फिर किसी के पक्ष में जनता की सहानुभूति हो।
बिहार में वोटर लिस्ट से हटाए गए लाखों मतदाता बिहार में इस बार मतदान बढ़ने को सिर्फ सत्ता के विरोध, या सत्ता के समर्थन से इसलिए भी नहीं जोड़ा जा सकता क्योंकि राज्य में वोटर लिस्ट के स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (एसआईआर) के तहत मतदाताओं की संख्या में कम आई है। वोटर पिछले चुनाव के मुकाबले कम होने से भी मतदान प्रतिशत बढ़ा हुआ दिख सकता है। एसआईआर के तहत बिहार की अंतिम मतदाता सूची में से करीब 65 लाख वोटरों के नाम हटा दिए गए हैं।
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