नई दिल्ली: अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का दूसरा कार्यकाल पहले की तुलना में काफी अलग है। व्हाइट हाउस में वापसी करते ही उन्होंने अपनी ट्रेड पॉलिसी से पूरी दुनिया को हिला दिया। लेकिन, इस बार भारत लगातार उनकी जुबान पर रहा है। इस दौरान रिश्तों का ग्राफ तेजी से ऊपर-नीचे गया है। कई मामलों पर ट्रंप का रुख पहले से बिल्कुल अलग है। पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने इस पर अपनी राय रखी है। उन्होंने कहा है कि ट्रंप की बदलती भू-राजनीतिक प्राथमिकताएं इंडो-पैसिफिक पर वाशिंगटन के पहले के फोकस से पीछे हटने का साफ संकेत देती हैं।
सरन ने 'द वायर' को दिए इंटरव्यू में कहा, 'एक बदला हुआ भू-राजनीतिक संदर्भ है। जितनी जल्दी हम इसे समझ लेंगे, उतना ही बेहतर हम बदली हुई परिस्थितियों से निपट पाएंगे।' उन्होंने आगे कहा, 'वर्तमान भू-राजनीतिक स्थिति में रूस अमेरिका की तुलना में ज्यादा विश्वसनीय और अनुमान योग्य पार्टनर है।' सरन का यह बयान ट्रंप के उस बार-बार किए जा रहे दावे पर प्रतिक्रिया थी जिसमें वह कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूसी तेल में कटौती का वादा किया है। सरन ने कहा कि पीएम मोदी के लिए यह राजनीतिक रूप से गलत होता अगर वह ऐसा कोई वादा करते। खासकर तब जब रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन दिसंबर में भारत यात्रा करने वाले हैं।
रूसी तेल खरीद घटाने पर होना पड़ सकता है मजबूर
सरन ने बताया कि रूस पर हाल ही में लगाए गए प्रतिबंध भारत को रूस से तेल की खरीद कम करने के लिए मजबूर कर सकते हैं। खासकर तब जब सेकेंडरी सैंक्शंस की भी घोषणा की जा सकती है। अमेरिका ने लुकोइल और रोसनेफ्ट जैसी दिग्गज रूसी कंपनियों पर प्रतिबंध लगाए हैं। सरन ने कहा, 'वैसे, सेकेंडरी सैंक्शंस की घोषणा अभी तक नहीं हुई है। लेकिन, यह ध्यान में रखना शायद समझदारी होगी कि वे सेकेंडरी सैंक्शंस भी बाद में लागू होंगे।'
एक्सपर्ट ने यह भी जोड़ा कि अमेरिकी वित्तीय प्रणालियों पर निर्भर रिलायंस जैसी भारतीय कंपनियों के लिए रूसी तेल की खरीद जारी रखना मुश्किल हो सकता है। हालांकि, सरकारी कंपनियां मध्यस्थों के जरिये काम कर सकती हैं। सरन ने स्पष्ट किया, 'लेकिन हां, जहां तक भारत की प्रमुख तेल कंपनियों का सवाल है, इन प्रतिबंधों का मतलब होगा कि उनके पास रूस से अपने आयात को कम करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा।'
रिश्तों का पहले जैसे हो पाना मुश्किल
भारत-अमेरिका संबंधों पर इन प्रतिबंधों के व्यापक प्रभाव के बारे में पूछे जाने पर सरन ने कहा कि रिश्ते पहले से ही 'बहुत चुनौतीपूर्ण दौर' से गुजर रहे थे। उन्होंने कहा, 'मैं भारत और अमेरिका के बीच संबंधों को उस स्थिति में वापस जाते हुए नहीं देखता जैसे ये पहले थे। फिर भले ही हम रूसी तेल की अपनी घटती खरीद के बाद व्यापार सौदा करने में कामयाब हो जाएं।' उन्होंने यह भी बताया कि राष्ट्रपति ट्रंप की ओर से पाकिस्तान के साथ की गई पहल प्रेशर पॉइंट है। खासकर ऐसे समय में जब भारत-पाकिस्तान संबंध पहले से ही तनाव में हैं।
सरन ने इस बात पर जोर दिया कि व्यापार सौदे को अंतिम रूप देने में असमर्थता 'बड़ी भू-राजनीतिक चुनौती' का संकेत देती है। उन्होंने कहा, 'यह व्यापार के बारे में नहीं है। यह बदली हुई भू-राजनीति के बारे में है। इंडो-पैसिफिक रणनीति, जो अमेरिकी वैश्विक रणनीति का केंद्रीय बिंदु थी। अब वह महत्वहीन हो गई है। अगर वह महत्वहीन हो गई है तो अमेरिका के लिए भारत का महत्व भी कम हो गया है।' पूर्व विदेश सचिव ने तर्क दिया कि ट्रंप का वर्ल्ड व्यू इंडो-पैसिफिक से हटकर 'हेमिस्फेरिक सिक्योरिटी' यानी गोलार्ध सुरक्षा की तरफ शिफ्ट हो गया है। इसमें घरेलू और क्षेत्रीय मुद्दों पर ज्यादा फोकस है। उन्होंने कहा, 'यूरोप को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया गया है... जहां तक इंडो-पैसिफिक रणनीति का सवाल है, यह पहले से ही एक बड़े बदलाव से गुजर रही है। अगर कल वह शी जिनपिंग से मिलते हैं और चीन के साथ किसी तरह की समझ विकसित हो जाती है तो इसका मतलब इंडो-पैसिफिक रणनीति को और भी कम महत्व दिया जाएगा।'
भारत के प्रति ट्रंप का रवैया बदलने का कारण सरन ने यह भी बताया कि कभी अमेरिकी नीति के मुख्य केंद्र में रही प्रमुख पहलें जैसे कि क्वाड अब प्राथमिकता नहीं रही हैं। उन्होंने कहा, 'ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री ने हाल ही में व्हाइट हाउस का दौरा किया। उन्होंने AUKUS के बारे में बात की। लेकिन, इस दौरे में क्वाड का एक भी उल्लेख नहीं हुआ। क्वाड अब पीछे छूटता दिख रहा है। इसे अमेरिकी इंडो-पैसिफिक रणनीति का आधार माना जाता था।'
जब पूछा गया कि क्या भारत के प्रति ट्रंप का रवैया निजी फैक्टर्स से भी प्रभावित था तो सरन ने कहा कि ट्रंप के अहंकार ने भूमिका निभाई। उन्होंने कहा, 'वह बार-बार कहते हैं कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध को टाला। भारत का कहना है कि इस संबंध में अमेरिका और राष्ट्रपति ट्रंप की कोई भूमिका नहीं थी। ट्रंप जैसे व्यक्ति के लिए यह ऐसी बात है जिसे वह पचा नहीं पा रहे हैं। उनका अहंकार बहुत बढ़ा हुआ है।'
सरन ने 'द वायर' को दिए इंटरव्यू में कहा, 'एक बदला हुआ भू-राजनीतिक संदर्भ है। जितनी जल्दी हम इसे समझ लेंगे, उतना ही बेहतर हम बदली हुई परिस्थितियों से निपट पाएंगे।' उन्होंने आगे कहा, 'वर्तमान भू-राजनीतिक स्थिति में रूस अमेरिका की तुलना में ज्यादा विश्वसनीय और अनुमान योग्य पार्टनर है।' सरन का यह बयान ट्रंप के उस बार-बार किए जा रहे दावे पर प्रतिक्रिया थी जिसमें वह कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूसी तेल में कटौती का वादा किया है। सरन ने कहा कि पीएम मोदी के लिए यह राजनीतिक रूप से गलत होता अगर वह ऐसा कोई वादा करते। खासकर तब जब रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन दिसंबर में भारत यात्रा करने वाले हैं।
रूसी तेल खरीद घटाने पर होना पड़ सकता है मजबूर
सरन ने बताया कि रूस पर हाल ही में लगाए गए प्रतिबंध भारत को रूस से तेल की खरीद कम करने के लिए मजबूर कर सकते हैं। खासकर तब जब सेकेंडरी सैंक्शंस की भी घोषणा की जा सकती है। अमेरिका ने लुकोइल और रोसनेफ्ट जैसी दिग्गज रूसी कंपनियों पर प्रतिबंध लगाए हैं। सरन ने कहा, 'वैसे, सेकेंडरी सैंक्शंस की घोषणा अभी तक नहीं हुई है। लेकिन, यह ध्यान में रखना शायद समझदारी होगी कि वे सेकेंडरी सैंक्शंस भी बाद में लागू होंगे।'
एक्सपर्ट ने यह भी जोड़ा कि अमेरिकी वित्तीय प्रणालियों पर निर्भर रिलायंस जैसी भारतीय कंपनियों के लिए रूसी तेल की खरीद जारी रखना मुश्किल हो सकता है। हालांकि, सरकारी कंपनियां मध्यस्थों के जरिये काम कर सकती हैं। सरन ने स्पष्ट किया, 'लेकिन हां, जहां तक भारत की प्रमुख तेल कंपनियों का सवाल है, इन प्रतिबंधों का मतलब होगा कि उनके पास रूस से अपने आयात को कम करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा।'
रिश्तों का पहले जैसे हो पाना मुश्किल
भारत-अमेरिका संबंधों पर इन प्रतिबंधों के व्यापक प्रभाव के बारे में पूछे जाने पर सरन ने कहा कि रिश्ते पहले से ही 'बहुत चुनौतीपूर्ण दौर' से गुजर रहे थे। उन्होंने कहा, 'मैं भारत और अमेरिका के बीच संबंधों को उस स्थिति में वापस जाते हुए नहीं देखता जैसे ये पहले थे। फिर भले ही हम रूसी तेल की अपनी घटती खरीद के बाद व्यापार सौदा करने में कामयाब हो जाएं।' उन्होंने यह भी बताया कि राष्ट्रपति ट्रंप की ओर से पाकिस्तान के साथ की गई पहल प्रेशर पॉइंट है। खासकर ऐसे समय में जब भारत-पाकिस्तान संबंध पहले से ही तनाव में हैं।
सरन ने इस बात पर जोर दिया कि व्यापार सौदे को अंतिम रूप देने में असमर्थता 'बड़ी भू-राजनीतिक चुनौती' का संकेत देती है। उन्होंने कहा, 'यह व्यापार के बारे में नहीं है। यह बदली हुई भू-राजनीति के बारे में है। इंडो-पैसिफिक रणनीति, जो अमेरिकी वैश्विक रणनीति का केंद्रीय बिंदु थी। अब वह महत्वहीन हो गई है। अगर वह महत्वहीन हो गई है तो अमेरिका के लिए भारत का महत्व भी कम हो गया है।' पूर्व विदेश सचिव ने तर्क दिया कि ट्रंप का वर्ल्ड व्यू इंडो-पैसिफिक से हटकर 'हेमिस्फेरिक सिक्योरिटी' यानी गोलार्ध सुरक्षा की तरफ शिफ्ट हो गया है। इसमें घरेलू और क्षेत्रीय मुद्दों पर ज्यादा फोकस है। उन्होंने कहा, 'यूरोप को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया गया है... जहां तक इंडो-पैसिफिक रणनीति का सवाल है, यह पहले से ही एक बड़े बदलाव से गुजर रही है। अगर कल वह शी जिनपिंग से मिलते हैं और चीन के साथ किसी तरह की समझ विकसित हो जाती है तो इसका मतलब इंडो-पैसिफिक रणनीति को और भी कम महत्व दिया जाएगा।'
भारत के प्रति ट्रंप का रवैया बदलने का कारण सरन ने यह भी बताया कि कभी अमेरिकी नीति के मुख्य केंद्र में रही प्रमुख पहलें जैसे कि क्वाड अब प्राथमिकता नहीं रही हैं। उन्होंने कहा, 'ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री ने हाल ही में व्हाइट हाउस का दौरा किया। उन्होंने AUKUS के बारे में बात की। लेकिन, इस दौरे में क्वाड का एक भी उल्लेख नहीं हुआ। क्वाड अब पीछे छूटता दिख रहा है। इसे अमेरिकी इंडो-पैसिफिक रणनीति का आधार माना जाता था।'
जब पूछा गया कि क्या भारत के प्रति ट्रंप का रवैया निजी फैक्टर्स से भी प्रभावित था तो सरन ने कहा कि ट्रंप के अहंकार ने भूमिका निभाई। उन्होंने कहा, 'वह बार-बार कहते हैं कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध को टाला। भारत का कहना है कि इस संबंध में अमेरिका और राष्ट्रपति ट्रंप की कोई भूमिका नहीं थी। ट्रंप जैसे व्यक्ति के लिए यह ऐसी बात है जिसे वह पचा नहीं पा रहे हैं। उनका अहंकार बहुत बढ़ा हुआ है।'
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