Dev diwali ki katha 2024: कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी को देवउठनी एकादशी कहते हैं। 12 नवंबर को देव उठनी एकादशी रहेगी। इस दिन देव उठ जाते हैं और तब विवाह आदि के कार्य प्रारंभ हो जाते हैं। 15 नवंबर को कार्तिक मास की पूर्णिमा रहेगी। इस दिन गंगा स्नान के साथ ही गंगा तट पर दीपदान किया जाता है। कई लोगों का मानना है कि देव उठनी एकादशी पर ही देव दिवाली रहती है। आओ जानते हैं कि सही क्या है और देव दिवाली की कथा क्या है? ALSO READ:
क्यों मनाते हैं देव उठनी एकादशी : इस दिन श्रीहरि विष्णु 4 माह की अपनी योगनिद्रा से जागते हैं और चातुर्मास इसी दिन से समाप्त हो जाते हैं। इस दिन को देव उठनी एकादशी कहते हैं और इसी दिन भगवान शलिग्राम का विवाह तुलसी से होता है। इसलिए इसे तुलसी विवाह का दिन भी कहते हैं। जिन दंपत्तियों के कन्या नहीं होती, वे जीवन में एक बार तुलसी का विवाह करके कन्यादान का पुण्य प्राप्त करते हैं। देव उठनी एकादशी की कथा श्रीहरि विष्णु, जलंधर और वृंदा से जुड़ी है। इस दिन इसकी कथा का श्रवण करते हैं।
क्यों मनाते हैं देव दिवाली : देव दिवाली का अर्थ होता है देवताओं की दिवाली। इस दिवाली को देवता लोग मनाते हैं। भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन त्रिपुरासुर का वध किया था। भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध करके देवताओं को भय से मुक्ति कर पुन: स्वर्ग का राज्य सौंप दिया था। इसी की खुशी में देवता लोग गंगा के तट पर एकत्रित होकर स्नान करते हैं और वहीं पर दीप जलाकर खुशी में दिवाली मनाते हैं। इसलिए इसे त्रिपुरारी पूर्णिमा भी कहते हैं।ALSO READ:
क्या करते हैं इस दिन: इस दिन घरों को दिवाली की तरह सजाकर दीप जलाते हैं और नदी के तट पर दीपदान करते हैं। इसी के साथ श्रीहरि विष्णु, तुलसी, श्री लक्ष्मी, भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा की जाती है। इस दिन मीठे पकवान बनाकर खाए जाते हैं।
Diwali Diya
देव दिवाली की पौराणिक कथा:
पौराणिक कथा के मुताबिक तारकासुर नाम का एक राक्षस था। उसके तीन पुत्र थे - तारकक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली...भगवान शिव के बड़े पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध किया। अपने पिता की हत्या की खबर सुन तीनों पुत्र बहुत दुखी हुए। तीनों ने मिलकर ब्रह्माजी से वरदान मांगने के लिए घोर तपस्या की। ब्रह्माजी तीनों की तपस्या से प्रसन्न हुए और बोले कि मांगों क्या वरदान मांगना चाहते हो। तीनों ने ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्माजी ने उन्हें इसके अलावा कोई दूसरा वरदान मांगने को कहा।
तीनों ने मिलकर फिर सोचा और इस बार ब्रह्माजी से तीन अलग नगरों का निर्माण करवाने के लिए कहा, जिसमें सभी बैठकर सारी पृथ्वी और आकाश में घूमा जा सके। एक हज़ार साल बाद जब हम मिलें और हम तीनों के नगर मिलकर एक हो जाएं, और जो देवता तीनों नगरों को एक ही बाण से नष्ट करने की क्षमता रखता हो, वही हमारी मृत्यु का कारण हो। ब्रह्माजी ने उन्हें ये वरदान दे दिया।
तीनों वरदान पाकर बहुत खुश हुए। ब्रह्माजी के कहने पर मयदानव ने उनके लिए तीन नगरों का निर्माण किया। तारकक्ष के लिए सोने का, कमला के लिए चांदी का और विद्युन्माली के लिए लोहे का नगर बनाया गया। तीनों ने मिलकर तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया। इंद्र देवता इन तीनों राक्षसों से भयभीत हुए और भगवान शंकर की शरण में गए। इंद्र की बात सुन भगवान शिव ने इन दानवों का नाश करने के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया।
इस दिव्य रथ की हर एक चीज़ देवताओं से बनी। चंद्रमा और सूर्य से पहिए बने। इंद्र, वरुण, यम और कुबेर रथ के चाल घोड़े बने। हिमालय धनुष बने और शेषनाग प्रत्यंचा बने। भगवान शिव खुद बाण बने और बाण की नोक बने अग्निदेव। इस दिव्य रथ पर सवार हुए खुद भगवान शिव। भगवानों से बनें इस रथ और तीनों भाइयों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। जैसे ही ये तीनों रथ एक सीध में आए, भगवान शिव ने बाण छोड़ तीनों का नाश कर दिया। इसी वध के बाद भगवान शिव को त्रिपुरारी कहा जाने लगा। यह वध कार्तिक मास की पूर्णिमा को हुआ, इसीलिए इस दिन को त्रिपुरी पूर्णिमा नाम से भी जाना जाने लगा।
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